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328:प्रेमचंद रचनावली-5
 

दूसरा खड

एक


उत्तर की पर्वत-श्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक गांव है। सामने गंगा किसी बालिका को भांति हंसती, उछलती, नाचती, गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊंचा पहाड़ किसी वृद्ध योगी की भांति जटा बढ़ाए, शांत, गंभीर विचारमग्न खड़ा है। यह गांव मानो उसकी बालस्मृति हैं, अमोद-विनोद से रंजित, या कोई युवावस्था का सुनहरा मधुर स्वरू। अब भी उन स्मृतियों को हृदय में सुलाए हुए, उस स्वप्न को छाती से चिपकाए हुए है।

इस गांव में मुश्किल से बीस-पच्चीस झोंपड़े होंगे। पत्थर के रोड़ों को तले-ऊपर रखक दीवारें बना ली गई हैं। उन पर छप्पर डाल दिया गया है। द्वारों पर बनकट की टट्टियां हैं। इन्हीं काबुकों में इस गांव की जनता अपने गाय बैलों, भेड़-बकरियों को लिए अनंत काल। विश्राम करती चली आती है।

एक दिन संध्या समय एक सांवला-सा, दुबला-पतला युवक मोटा कुर्ता, ऊंची धोती और चमरौधे जूते पहने, कंधे पर लुटिया-डोर रखे बगल में एक पोटली दबाए इस गांव में आया और एक बुढ़िया से पूछा-क्यों माता, यहां परदेशी को रात भर रहने का ठिकाना मिल जाएगा?

बुढ़िया सिर पर लकड़ी का गट्टा रखे, एक बूढी गाय को हार की ओर से हांकती चली आती थी। युवक को सिर से पांव तक देखा, पसीने में तर, सिर और मुंह पर गदं जमी हुई, आंखें भूखी, मानो जीवन में कोई आश्रय ढूंढता फिरता हो। दयार्द होकर बोली-यहां तो सब दास रहते हैं, भैया!

अमरकान्त इसी भाति महीनों में दहातों का चक्कर लगाता चला आ रहा है। लगभग पचास छोटे-बड़े गांवों को यह देख चुका है, कितने ही आदमियों से उसकी जान-पहचान हो गई हैं, कितने ही उसके सहायक हो गए हैं, कितने ही भक्त बन गए हैं। नगर का चह सुकुमार युवक दुबला तो हो गया है; पर धूप और लू, आंधी और वर्षा, भूख और प्यास सहन की शक्ति उसमें प्रख़र हो गई हे। भावी जीवन की यही उसकी तैयारी है, यही तपस्या है। वह ग्रामवासियों की सरलता और सहदयता, प्रेम और संतोष से मुग्ध हो गया है। ऐसे सीधेमादे, निष्कपट मनुष्यों पर आए दिन जो अत्याचार होते रहते हैं उन्हें देखकर उसका खून खौल उठता हैं। जिस शांति की आशा उसे देहाती जीवन की ओर खींच लाई थी, उसकी यहां ना भी न था। घोर अन्याय का राज्य था और अमर की आत्मा इस राज्य के विरुद्ध झंडा उठाए फिरती थी।

अमर ने नम्रता में कहा-मैं जात-पांत नहीं मानता, माताजी। जो सच्चा है, वह चमा भी हा, तो आदर के योग्य है; जो दगाबाज, झूठा, लंपट हो, वह ब्राह्मण भी हो तो आदर के योग्य नहीं लाओ, लकड़ियों को गट्ठा में लेता चलू।

उसने बुढिया के मित्र में गट्ठा उतारकर अपने सिर पर रख लिया।