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408:प्रेमचंद रचनावाली-5
 

सुखदादेवी की अज्ञा कौन टाल सकता था? सारे शहर में इतनी जल्द संवाद फैल गया कि यकीन न आता था। ऐसे अवसरों पर न जाने कहां से दौड़ने वाले निकल आते हैं, जैसे हवा में भी हलचल होने लगती है। महीनों से जनता को आशा हो रही थी कि नए-नए घरों में रहेंगे, साफ-सुथरे हवादार घरों में, जहां धूप होगी, हवा होगी, प्रकाश होगा। सभी एक नए जीवन का स्वप्न देख रहे थे। आज नगर के अधिकारियों ने उनकी सारी आशाएं धूल में मिला दीं।

नगर की जनता अब उस दशा में न थी कि उस पर कितना ही अन्याय हो और वह चुपचाप सहती जाय। उसे अपने स्वत्व का ज्ञान हो चुका था, उन्हें मालूम हो गया था कि उन्हें भी आराम से रहने का उतना ही अधिकार है, जितना धनियां को एक बार संगठित अ को सफलता देख चुके थे। अधिकारियों की यह निरंकुशता, यह स्वार्थपरता उन्हें असहा हो गई। और यह कोई सिद्धांत को रजिनेतिक लड़ाई न थी, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप जनता की समझ में मुश्किल से आता है। इस आंदोलन को तत्काल फल उनके सामने था। भावना या कल्पना पर जोर देने की जरूरत न थी। शाम होते-होते ठाकुरद्वारे में अच्छा-खासा बाजार लग गया।

धावियों का चौधरी मैक अपनी बकरे-की-सी दाढी हिलाता हुआ बोला, नशे से आंखे लान थीं-कपड़े बना रहा था कि खबर मिली। भागों आ रहा है। घर में कहीं कपड़े बन की जगह नहीं हैं। गीले कपड़े कहां मृखें?

इस पर जगन्नाथ मेहरा ने डांटा-झूठ न बोलो मैक, तुम कपड़े बना रहे थे अभी सीधे ताड़ीखाने में चले आ रहे हो! कितना समझाया गया, पर तुमने अपनी टेब न छोडो।

मैकू ने तीखे होकर कहा--लो, अब चुप रहो चौधरी, नहीं अभी सारी कलई खोल दूंगा।। घर में बैठकर बोतल-के-बोतल उड़ जाते हो और यहां आकर सेखी बघारते हो।

मेहतरों का जमादार मतई खड़े होकर अपनी जमादारी की शान दिखाकर बोला-पर्चा यह बख़त बदहवाई बातें करने का नहीं है। जिम काम के लिए देवीजी ने बुलाया है, उसका देखा और फैसला करा कि अब हमें क्या करना है? उन्ही बिलों में पड़ सड़ते रहे, या चलकर हाकिमों में फरियाद करें।

मुखदा में विद्रोह - भर म्वर में कहा-हाकिम में जो कुछ कहना मुना था, कह सुन चुके, किसी ने भी कान न दिया। छ: महीने से यही कहा सुनी हो रही है। लेकिन अब तक उसका कोई फल न निकला, तो अब क्या निकलेगा? हमन आग्नू मिन्नत से काम निकाला! चाहा था, पर मालुम हुआ, 'सीधी उंगली से घी नहीं निकलता। हम जितना दबंग, यह व आदमी हमें उतना ही दबाएंगे, आज तुम्हें तय करना है कि तुम अपने हक के लिए लड़ने को तैयार हो या नहीं।

चमारों का मुखिया सुमेर लाठी टेकता हुआ, मोटे चश्मे लगाए पोपले मुंह से बोला- अरज-मरूद करने के सिवा और हम कर ही क्या सकते हैं? हमारा क्या बस है?

मुरली खटीक ने बड़ी-बड़ी मूंछों पर हाथ फेरकर कहा- बम कैसे नहीं है? हम आदमी नहीं हैं कि हमारे बाल-बच्चे नहीं हैं? किसी को तो महल और बगला चाहिए, हमें करवा घर भी न मिल। म घर में पांच जने हैं उनमें से चार आदमी महीने भर से बीमार हैं। उम