पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४६९

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कर्मभूमि:469
 

कर्मभूमि : 469 अमर ने अपने संगी से कहा-जरा ठहर जाओ भाई, दम ले , मेरे हाथ नहीं चलते। क्या नाम है तुम्हारा? मैंने तो शायद तुम्हें कहीं देखा है। संगी गठीला, काला, लाल आंखों वाला, कठोर आकृति का मनुष्य था, जो परिश्रम से थकना न जानता था। मुस्कराकर बोला-मैं वही काले खां हैं, एक बार तुम्हारे पास सोने के कड़े बेचने गया था। याद कगे लेकिन तुम यहां कैसे आ फंसे, मुझे यह ताज्जुब हो रहा है। परसों से ही पूछना चाहता था पर सोचता था, कहीं धोखा न हो रहा हो। अमर ने अपनी कथा संक्षेप में कह सुनाई और पूछा-तुम कैसे आए? काले खां हंसकर बोला-मेरी क्या पृछते हो लाला, यहां तो छ: महीने बाहर रहते हैं, तो छ: सील भीतर। अब तो यही आरजू है कि अल्लाह यहीं से बुला ले। मेरे लिए बाहर रहना मुसीबत है। सबको अच्छा-अच्छा पहनते, अच्छा- अच्छा खाते देखता हूं, तो हसद होता है, पर मिले कहां से? कोई हुनर आता नहीं, इलम है नहीं। चोरी न करू, डाक न मारू. तो खाऊ क्या? यहां किसी से हसद नहीं होता, न किमी को अच्छा पहनते देखता हूं, न अच्छा खते। सब अपने ही जैसे हैं, फिर डाह और जलन क्यों हो? इसीलिए अल्लाहताला से दुआ करती हूं कि यहीं से बुला ले। छूटने की आरजू नहीं है। तुम्हारे हाथ दुख गए हो तो रहने दो। मैं अकेला ही 'पीस डालेगा। तुम्हें इन लोगों ने यह काम दिया ही क्यों? तुम्हारे भाई-बंद तो हम लोगों से अलग, । " से रखे जाते हैं। तुम्हें यहां क्यों डाल दिया? हट जाओ। अमर ने चक्की की मुठिया जोर से पकड़कर कहा--नहीं-नहीं, मैं थका नहीं है। दो-- चार दिन में आदत पटु जाएगी, तो तुम्हारे बराबर काम करूगा।। कारने खां ने उसे पीछे हटाते हुए कहा–मगर यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम मेरे साथ चक्को पोम्यो। तुमने जुर्म नहीं किया है। रिआया के पीछे सरकार से लड़े हो, तुम्हें में न पीसने दूंगा। मालूम होता है तुम्हारे लिए ही अल्लाह ने मुझे यहां भेजा है। वह तो बड़ा कारसाज आदमी हैं। उमकी कुदरत कुछ समझ में नहीं आती। आप ही आदमी से बुराई करवाता है, आप ही उसे सजा देता है, और आप ही उसे मुआफ कर देता है। अमर ने आपत्ति की-बुराई खुदा नहीं करात', हम खुद कर * काले खां ने ऐसी निगाहों में उसकी ओर देखा, जो कह रही थी, तुम इस रहस्य को अभी नहीं समझ सकते-ना-ना, मैं यह नहीं मानूंगा। तुमने तो पढ़ा होगा, उसके हुक्म के बगैर एक पता भी नहीं हिल सकता, बुराई कौन करेगा सब कुछ वही करवाता है, और फिर माफ भी कर देता है। यह मैं मुंह से कह रहा हूं। जिस दिन मेरे ईमान में यह बात जम जाएगी, उसी दिन बुराई बंद हो जाएगी। तुम्हीं ने उस दिन मुझे वह नसीहत सिखाई थी। मैं तुम्हें अपना पीर समझता हूँ। दो सौ की चीज तुमने तीस रुपये में न ली। उसी दिन मुझे मालूम हुआ, बदी क्या चीज है। अब सोचता हूं. अल्लाह को क्या मुंह दिखाऊंगा? जिंदगी में इतने गुनाह किए हैं कि जब उनकी याद आती है, तो रोए खड़े हो जाते हैं। अब तो उसी की ९०मी का भरोसा है। क्यों भैया, तुम्हारे मजहब में क्या लिखा है? अल्लाह गुनहगारों को मुआई कर देता है? काले खां की कठोर मुद्रा इस गहरी, सजीव, सरल भक्ति से प्रदीप्त हो उठी, आंखों में कोमल छटा उदय हो गई। और वाणी इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी आई थी कि अमर का हुदय पुलकित हो उठा-सुनता तो हू खां साहब, कि वह बड़ा दयालु है। | काले खां दूने वेग से चक्की घुमाता हुआ बोला-बड़ा दयालु है, भैया । मां के पेट में बच्चे को भोजन पहुंचाता है। यह दुनिया ही उसकी रहीमी का आईना है। जिधर आंखें उठाओ,