पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४७७

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कर्मभूमि : 477 हमारी कोई लड़ाई नहीं है। “तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका भुझे अफसोस है। इस्लाम ने हमेशा मजलूमों की मदद की है। और तुम मजलूमों की गर्दन पर छुरी फेर रहे हो ।' | ।' जब सरकार हमारी परवरिस कर रही है, तो हम उनके बदखाह नहीं बन सकते। अगर सरकार तुम्हारी जायदाद छीनकर किसी गैर को दे दे, तो तुम्हें बुरा लगेगा, या नहीं?" ‘सरकार से लड़ना हमारे मजहब के खिलाफ है। यह क्यों नहीं कहते तुममें गैरत नहीं है? आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फर्ज नहीं है कि वादशाह की मदद करें? अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि गरीबों का वन किया जाए, तो मैं काफिर तेगमूहमद पढ़ा-लिरवा आदमी था। वह वाद-विवाद करने पर तैयार हो गया। सलीम ने उसकी हसी उड़ाने की चेष्टा की पंथों को वह संसार का कलंक समझता था, जिसने मनुष्य-जाति को विरोधी दलों में विभक्त करके एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। तमुहम्मद राजा - नमाज़ का पाबंद, दोनदार मुसलमान था। मजहब की तौहीन क्योंकर बर्दाश्त करता? उधर नो हिगने में पुलिस और अहीरों में लाठियां चल रही थीं, इधर इन दोनों में हाथापाई की नौबत आ गई। केसाई पहलवान था। सलीम भी ठोकर चलाने और घूसेबाजी में मंजा हुआ, फुर्तीला, चुस्त। पहलवान साहब उसे अपनी पकड़ में लाकर दबोच बैठना चाहते थे। वह ठीक-पर-ठोकर जमा रहा था। ताबड़ तोड ठोकर पड़ीं तो पहलवान साहब गिर पड़े और लगे मातृभाषा में अपने मनोविकारों को प्रकट करने। उसके दोनों साथियों ने पहले दृर हो से तमाशा देना उचित समझा था लेकिन जब तामहम्मद गिर पड़ा, तो दोनों कमर कसकर पिले पड़े। यह दोनों अभी जवान पटे थे, जो और चुस्ती में सलीम के बराबर थे सलीम पीछे हटता जाता था और यह दोनों उमं ठेलते जाते थे। उसी वक्त सलोनी लाठी टेकती दुई अपनी गाय खोजने आ रही थी। पुलिस उसे उसके दो से खोल लाई , ग्रहां यह संग्राम छिड़ा देखकर उसने अंचल सिरे से उतार कर कमर में बांधा और लाठी से लेकर पीछे से दोनों कसाइयों को पीटने लगी। उनमें से एक ने पीछे फिरकर बुढिया को इतने जोर से धक्का दिया कि वह तीन- चार हाथ पर जा गिरी। इतनी देर में सलीम ने धात पाकर सामने के जवान को ऐसा चूंसा दिया कि उसकी नाक से खुन जारी हो गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। अब केवल एक आदमी और रह गया। उसने अपने दो योद्धाओं को यह गति देखी तो पुलिस वालों से फरियाद करने भागा। तेगमुहम्मद को दोनों घुटनियां बेकार हो गई थी उठ न सकता था। मैदान खाली देखकर सलीम ने लपककर मवेशियों की रस्सियां खोल दी और तालिया बजा बजाकर उन्हें भगा दिया। बेचारे जानवर सहमे खड़े थे। आने वाला विपत्ति को उन्हें कुछ 37भास हो रहा था। रस्सी खुली तो सब पुंछ उठा-उठाकर भागे और हार की तर' निकल गए। उसी वक्त आत्मानन्द बदहवास दौड़े आए और बोले-आप जरा अपना रिवाल्वर तो मुझे दीजिए। सलीम ने हक्का-बक्का होकर पूछा--क्या माजरा है, कुछ कहो तो?