पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४८०

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480:प्रेमचंद रचनावली-5
 

का भी विश्वासपात्र था और अधिकारियों का भी। अब तक वह एक प्रकार से उपयोगितावाद का उपासक था। इसी सिद्धांत को मन में, यद्यपि अज्ञात रूप से, रखकर वह अपने कर्तव्य का निश्चय करता था। तत्त्व-चिंतन का उसके जीवन में कोई स्थान न था। प्रत्यक्ष के नीचे जो अथाह गहराई है, वह उसके लिए कोई महत्त्व न रखती थी। उसने समझ रखा था, वही शून्य के सिवा और कुछ नहीं। काले खां को मृत्यु ने जैसे उसका हाथ पकड़कर बलपूर्वक उसे गहराई में डुबा दिया और उसमें डूबकर उसे अपना सारा जीवन किसी तृण के समान ऊपर तैरता हुआ दीख पड़ा, कभी लहरों के साथ आगे बढ़ता हुआ, कभी हवा के झोंकों से पीछे हटता हुआ; कभी भंवर में पड़कर चक्कर खाता हुआ। उसमें स्थिरता न थी, संयम न था, इच्छा न थी। उसकी सेवा में भी दंभ था, प्रमाद था, द्वेष था। उसने दंभ में सुखदा की उपेक्षा की। उस विलासिनी के जीवन में जो सत्य था, उस तक पहुंचने का उद्योग न करके वह उसे त्याग बैठा। उद्योग करता भी क्या? तब उसे इस उद्योग का ज्ञान भी न था। प्रत्यक्ष ने उसी भीतर वाली आखों पर परदा डालकर रखी था। प्रमाद में उसने सकीना से प्रेम का स्वांग किया। क्या उस उन्माद में लेशमात्र भी प्रेम की भावना थी? उस समय मालूम होता था, वह प्रेम में रत हो गया है, अपना सर्वस्व उस पर अर्पण किए देता है, पर आज उस प्रेम में लिप्सा के सिवा और उसे कुछ न दिखाई देता था। लिप्सा ही न थी, नीचता भी थी। उसने उस सरल रमणो की हीनावस्था से अपनो लिप्सा शांत करनी चाही थी। फिर मुन्नी उसके जीवन में आई, निराशाओं से भग्न, कामनाओं से भरी हुई। उस देवी से उसने कितना कपट व्यवहार किया ! यह सत्य है कि उसके व्यवहार में कामुकता न थी। वह इम्पो विचार से अपने मन को समझा लिया करता था, लेकिन अब आत्म-निरीक्षण करने पर प्र ज्ञात हो रहा था कि उप विनोद में भी, उस अनुराग में भी कामुकतों का समावेश था। तो क्या वह वास्तव में कामुक है? इसका जो उतर उसने स्वयं अपने अंत:करण से पाया, वह किसी तरह श्रेयस्कर न था। उसने सुख़दा पर विलासिता का दोष लगाया, पर वह स्वयं उससे कहीं। कुत्सित, कहीं विषय-पूर्ण विलासिता में लिप्त था। उसके मन में प्रबल इच्छा हुई कि दोनों रमणियों के चरणों पर सिर रखकर रोए और कहे-देविया, मैंने तुम्हारे साथ छल किया है. तुम्हें दगा दी है। मैं नीच है. अधम है, मुझे जो सजा चाहे दी, यह मस्तक तुम्हारे चरों पर पिता के प्रति भी अमरकान्त के मन में श्रद्धा का भाव उदय हुआ। जिसे उमर माया का दास और लाभ का कोड़ा समझ लिया था, जिसे यह किमी प्रकार के त्याग के अयो। समझता था, वह आज देवत्व के ऊचे सिंहासन पर बैठा हुआ था। प्रत्यक्ष के नशे में उमने किमी न्यायी, दयालु ईश्वर की सत्ता को कभी स्वीकार न किया था, पर इन चमत्कारो को देखकर अब उसमें विश्वाम और निष्ठा का जैसे एक सागर-मा उमड़ पड़ा था। उसे अपने छोटे-छोटे व्यवहारों में भी ईश्वरीय इच्छा को आभास होता था। जीवन में अब एक नया उत्साह था। नई जागृति थी। हर्पमये आशा से उसका रोम-रोम स्पंदित होने लगा। भविष्य अत्र उपके लिए अंधकारमय न था। दैवी इच्छा में अंधकार कहां । संध्या का समय था। अमरकान्त परेड में रहा था, उसने सलीम को आते देखा। सलीम के चरित्र में कायापलट हुआ था, उसकी उसे खबर मिल चुकी थी, पर यहां तक नौबत पहुंच चुकी है, इसका उमे गुमान भी न था। वह दौड़कर मलीम के गले से लिपट गया। और बोला-