पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४९९

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कर्मभूमि:499
 

पल गई है, जिसकी कामना अप्रत्यक्ष होकर भी उसके जीवन में एक रिक्ति, एक अपूर्णता की सूचना देती रहती थी। आज उस रिक्ति में जैसे मधु भर गया है, वह अपूर्णता जैसे पल्लवित हो गई है। आज उसने पुरुष के प्रेम में अपने नारीत्व को पाया है। उसके हृदय से लिपटकर अपने को खो देने के लिए आज उसके प्राण कितने व्याकुल हो रहे हैं। आज उसकी तपस्या मानो फलीभूत हो गई है। रही मुन्नी, वह अलग विरक्त भाव से सिर झुकाए खड़ी थी। उसके जीवन की सूनी मुंडेर पर एक पक्षी न जाने कहां से उड़ता हुआ आकर बैठ गया था। उसे देखकर वह अंचल में दाना भरे आईआ। कहती, पांव दवाती हुई उसे पकड़ लेने के लिए लपककर चली। उसने दाना जमीन पर बिखेर दिया। पक्षी ने दाना चुगा, उसे विश्वास भरी आंखों से देखी, मानो पूछ रही हो--तुम मुझे स्नेह से पालोगी या चार दिन मन बहलाकर फिर पर काटकर निराधार छोड़ दोगी, लेकिन उसने ज्योंही पक्षी को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, पक्षी उड़ गया और तब दूर को एक डाली पर बैठा हुआ उसे कपट भरी आंखों से देख रहा था, मानो कह रहा हो–में आकाशगामी हूं, तुम्हारे पिंजरे में मेरे लिए सूखे दाने और कुल्हिया में पानी के सिवा और क्या था । सलीम ने नाद में चूना डाल दिया। सकीना और मुन्नी ने एव - एक डोल उठा लिया और पानी खीचने चलीं। अम ने कहा -बान्टी मुझे दे दो में भरे लाता हूं। मुन्नी बोली--तुम पानी भरोगे और हम बैठे देखेगे? अमर न हमकर कहा-और क्या, तुम पानी भरोगी, और मैं तमाशा देखंगा? मन्नी बाल्टी लेकर भागी। सकीना भी उसके पीछे दौडी।। रेणुका जमाई के लिए कुछ जलपान बना ला चली गई थी। यहां जेल में बेचारे को राटी-दाल के सिवा और क्या मिलना है। वह चाहती थी, सैकड़ों चीजें बनाकर विधिपूर्वक जमाई का खिलाए। जेल में भी रेणुका को घर के सभी सुख प्राप्त थे। लेडी जेलर, चौकीदारिने और अन्य कर्मचारी भी उनके गुन्नाम थे। पठानिन खड़ी-खड़ी थक जाने के कारण जाकर लेट रही थी। मुन्नी और सकना पानी भरने चली गई। सलीम को भी सकीना से बहुत-सी बातें कहनी थी। वह भी बबे की तरफ चन्ना। यहा केवल अमर औ, जिदा रह गए। अमर ने सुखदा के समीप आकर बालक को गले लगाते हुए कहा-यह जेल तो मेरे लिए स्वर्ग हो गया सुखदा । जितनं तपस्या की थी, उससे कही बकर वरदान पाया। अगर हृदय दिखाना संभव हाता, तो दिखाता कि मुझे तुम्हार कितनी याद आती थी। बार-बार अपनी गलतियों पर पछताता था। | सुखदा ने बात काटी-अच्छी, अब तुमने बातें बनाने की कला भी सीख ली। तुम्हारे हृदय का हाल कुछ मुझे भी मालूम हैं। उसमें नीचे से ऊपर तक क्रोध-ही-क्रोध है। क्षमा या दया का कहीं नाम भी नहीं। मैं विलासिनी सही, पर उस अपराध का इतना कठोर दंड | यह जानते थे कि वह मेरा दोष नहीं, मेरे संस्कारों का दोष था। अमर ने लज्जित होकर कहा-यह तुम्हारा न्याय है सुखदा ।। सुखदा ने उसकी ठोड़ी को ऊपर उठाते हुए कहा--मेरी ओर देखो। मेरा ही अन्याय है । तुम न्याय के पुतले हो? ठीक है। तुमने सैकड़ों पत्र भेजे, मैंने एक का भी जवाब न दिया, क्यों? मैं कहती हूं, तुम्हें इतना क्रोध आया कैसे? आदमी को जानवरों से भी प्रीति हो जाती