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गबन : 53
 


लौटा दो मोह और दुविधा में न पड़ो।

जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुंह से उसे ऐसी आशा न थी। इंकार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिए था। जागेश्वरी की ओर लालायित नेत्रों से देखकर बोली-लौटा दो। रात-दिन के तकाजे कौन सहेगा।

वह केसों को बंद करने ही वाली थी कि जागेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण-भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायेगी। फिर मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा-अब तुमने पहन लिया है अम्मां, तो पहने रहो। मैं तुम्हें भेंट करता हूं। जागेश्वरी की आंखें जल हो गईं। जो लालसा आज तक ने पूरी हो सकी, वह आज रमा की मातृ-भक्ति से पूरी हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी ? अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है? न जाने रुपये जल्द हाथ आएं या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊंचे दामों का हुआ, तो बेचारा देगा कहां से? उसे कितने तकाजे सहने पड़ेंगे और कितनी लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली- नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।

माता का उदास मुख देखकर रमा का हृदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्यागमूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा? माता के प्रति उसका कुछ कर्तव्य भी तो है? बोला-रुपये बहुत मिल जाएंगे अम्मां, तुम इसकी चिंता मत करो।

जागेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है।

जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित् उसे भय हो रहा था कि माताजी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागेश्वरी को संदेह नहीं रहा। उसने तुरंत कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोली- मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूं, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ-पहन चुकी। अब जरा तुम पहनों, देखें।

जालपा को इसमें जरा भी संदेह न था कि माताजी के पास रुपये की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गई हैं और कंगन के रुपए दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रुपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इंकार करती; मगर ऊपरी मन से बोली-रुपये न हों, तो रहने दीजिए अम्मांजी, अभी कौन जल्दी है?

रमा ने कुछ चिढ़कर कहा-तो तुम यह कंगन ले रही हो?

जालपा-अम्माजी नहीं मानतीं, तो मैं क्या करूं?

रमानाथ-और ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतीं?

जालपा-जाकर दाम तो पूछ आओ।

रमा ने अधीर होकर कहा-तुम इन चीजों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब !

रमा ने बाहर आकर दलाल से दाम पूछा तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे, और रिंग डेढ़ सौ के। उसका अनुमान था कि कंगन अधिक-से-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालीस-पचास रुपये के। पछताए कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिए, नहीं तो इन चीजों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती? फेरते हुए शर्म आती थी; मगर कुछ भी हो, फेरना तो