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गबन : 69
 

आख़िर रतन बड़ी मुश्किल से विदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया-बिना आधे रुपये लिए कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।

रमा को मानो गोली लग गई। बोला–महाराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक महिला की चीज है, उन्होंने पेशगी रुपये दिए थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा। मुझसे अपने रुपयों के लिए पुरनोट लिखा लो, स्टांप लिखा लो और क्या करोगे?

गंग-पुरनोट को शहद लगाकर चाटुंगा क्या? आत- आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बड़े आदमी हैं, आपके लिए पांच-छ: सौ रुपये कौन बड़ी बात है। कंगन तैयार हैं।

रमा ने दांत पीसकर कहा-अगर यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दी? अब तक मैंने रुपये की कोई फिक्र की होती न ।

गंगू-मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।

रमा निराश होकर घर लौटा आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दु:ख होता, पर वह कंगन उतारकर दे देती; लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयां की दशा कहकर उसके कोमल हृदय पर आघात न कर सकता था।

इस संदेह नहीं कि रमा को सौ रुपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे, और वह किफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दोनों सर्राफों के कम-से-कम आधे रुपये अवश्य दे देता; लेकिन ऊपर की आमदनी थी तो ऊपर का खर्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर-सपाटे में खर्च हो जाता और सर्राफों का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रुका हुआ था। कौड़ियों से रुपये बनाना वणिककों का ही काम है। बाबू लोग तो रुपये को कौड़ियां हीं बनाते।

कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सराफे का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सराफ को झांसा दें पर कहीं दाल न गली। बाजार में बेतार की खबरें चला करती हैं।

रमा को रातभर नींद न आई। यदि आज उसे एक हजार का रुपया लिखकर कोई पांच सौ रुपये भी दे देता तो वह निहाल हो जाता, पर अपनी जान-पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नजर न आता था। अपने मिलने वालों में उसने सभी से अपनी हवा बांध रखी थी। खिलाने- पिलाने में खुले हाथों रुपया खर्च करता था। अब किस मुंह से अपनी विपत्ति कहे ? वह पछता रहा था कि नाहक गंगू को रुपये दिए। गंगू नालिश करने तो जाता न था। इस समय यदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दस-पांच दिन की मुहलत तो मिल जाती; मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती । वह तो उसी समय आती है, जब हम उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे, कोई ऐसा मित्र भी नजर नहीं आता था, जो उसके नाम फर्जी तार भेज देता। वह इन्हीं चिंताओं में करवटें बदल रहा था कि जालपा की आंख खुल गई। रम ने तुरंत चादर से मुंह छिपा लिया, मानो बेखबर सो रहा है। जालपा ने धीरे से चादर हटाकर उसका मुंह देखा और उसे सोता पाकर ध्यान से उसका मुंह देखने लगी। जागरण और निद्रा का अंतर उससे छिपा न रहा। उसे धीरे से हिलाकर बोली-क्या अभी तक जा रहे हो?

रमानाथ-क्या जाने क्यों नींद नहीं आ रही है। पड़े-पड़े सोचता था, कुछ दिनों के लिए