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तीन लोक कौ बोझ ले, भारी भये मुरारि।
फन फन पर नाचत फिरे, बाजे पग पट तारि॥

तब तो मारे बोझ के काली मरने लगा औ फन पटक पटक उसने जीभें निकाल दीं, तिनसे लोहू की धारे बह चलीं। जद विष औ बल का गर्व गया तद उनने मन में जाना कि अदि पुरुष ने औतार लिया, नहीं इतनी किसमें सामर्थ है जो मेरे विष से बचे। यह समझ जीव की आस तज सिथिल हो रहा, तई नागपत्नी ने आय हाथ जोड़ सिर नवाय विनती कर श्रीकृष्णचंद से कहा—महाराज, आपने भला किया जो इस दुखदाई, अति अभिमानी की गर्व दूर किया। अब इसके भाग जागे, जो तुम्हारा दर्शन पाया। जिन चरन को ब्रह्मा आदि सब देवता जब तप कर ध्यावते है, सोई पद काली के सीस पर बिराजते हैं।

इतना कह फिर बोली―सहाराज, गुभ, पर दया कर इसे छोड़ दीजे, नही तो इसके साथ मुझे भी बध कीजे, क्योंकि स्वामी बिन स्त्री को मरना ही भला है औ जो विचारिये तो इसका भी कुछ दोष नहीं, यह जाति स्वभाव है कि दूध पिलायें विष बढ़े।

इतनी बाल नागपत्नी से सुन श्रीकृष्णचंद उसपर से उतर पड़े। तब प्रणाम कर हाथ जोड़ काली बोला―नाथ, मेरा अपराध क्षमा कीजे, मैने अनजाने आप पर फन चलाये। हम अधम जाति सर्प, हमें इतना ज्ञान कहां जो तुम्हें पहचानें। श्रीकृष्ण बोले―जो हुआ सो हुआ पर अब तुम यहाँ न रहो, कुटुंब समेत रौनक दीप में जा बसो।

थह सुन झाली ने डरते काँपते कही―कृपानाथ, वहाँ जाऊँ सो गरुड़ मुझे खा जायगा, विसीके भय से मैं यहाँ भाग आया