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तेईसवाँ अध्याय

श्री शुकदेव मुनि बोले कि सरद ऋतु के जाते ही हेमंत ऋतु आई औ अति जाड़ा, पाला पड़ने लगा। तिस काल ब्रजबाला आपस में कहने लगीं कि सुनो सहेली, अगहन के न्हाने से जन्म जन्म के पातक जाते है और मन की आस पूजती है, यो हमने प्राचीन लोगो के मुख से सुना है। यह बात सुन सबके मन में आई कि अगहन न्हाइये तो निस्संदेह श्रीकृष्ण बर पाइये।

ऐसे विचार भोर होते ही उठ वस्त्र आभूषन पहर सुब ब्रज छाला मिल जमुना न्हान आई, स्नान कर सूरज को अरघ दे, जल से बाहर आय, भाटी की गौर बनाय, चंदन, अक्षत, फूल, फल, चढ़ाय, धूप दीप नैवेद्य आगे धर, पूजा कर, हाथ जोड़, सिर नाय, गौर को मनाय के बोलीं―हे देवी, हम तुमसे बार बार यही बर माँगती है कि श्रीकृष्ण हमारे पति होय। इस विधि से गोपी नित न्हावे, दिन भर व्रत कर सॉझ को दही भात खा भूमि पर सोवे, इसलिये कि हमारे व्रत को फले शीघ्र मिले।

एक दिन सब ब्रजबाला मिल स्नान को औघट घाद गई औ बहाँ जयि चीर उतार तीर पर धर नग्न हो नीर में पैठ लगी हरि के गुन गाय गाय जल क्रीड़ा करने। तिसी समै श्रीकृष्ण भी बंसीवट की छाँह में बैठे धेनु चरावते थे। दैवी इनके गाने का शब्द सुन चे भी चुपचाप चले आये और लगे छिपकर देखने। निदान देखते देखते जो कुछ उनके जी में आई, तो सब वस्त्र चुराय कदम पर जा चढ़े औ गठड़ी बाँध आगे धर