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जो देह छोड़ आई थी । कहा कि सुनो जो हरि से हित करता है । ति जिसका विनास कभी नहीं होता, यह तुम से पहले आ मिली है।

इतनी कथा सुनाथ श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जिसको देखतेही तो एक बार सब अचंभे रहीं, पीछे ज्ञान हुआ तद् हरि गुन गाने लगीं । इस बीच' श्रीकृष्णचंद ने भोजन कर उनसे कहा कि अब स्थान को प्रस्थान कीजे, तुम्हारे पति कुछ न कहेंगे, जब श्रीकृष्ण ने चिन्हें ऐसे समझाय बुझाय के कहा तब वे बिदा हो दंडवत कर अपने घर गईं । औ जिनके स्वामी सोच विचारके पछताय पछताय कह रहे थे कि हमने कथा पुरान में सुना है, जो किसी समै नंद जसोदा ने पुत्र के निमित्त बड़ा तप किया था, तहाँ भगवान ने आ उन्हें यह बर दिया कि हम यदुकुल में औतार ते तुम्हारे यहाँ जायेंगे। वेई जन्म ले आये हैं, जिन्होंने ग्वाल बालों के हाथ भोजन मॅगवाय भेजा था । हमने यह क्या किया जो आदि पुरुष ने माँगा औ भोजन न दिया ।

यज्ञ धर्मं जो कारन ठये । तिनके सनमुख आज न भये ।। आदि पुरुष हम मानुष जान्यौ । नाहीं अचन ग्वालन की मान्यौ । हम मूरख पाप अभिमानी । कीनी दया न हरि गति जानी ।।

धिकार है हमारी मति को औ इस यज्ञ करने को जो भगवान को पहचान सेवा न करी ! हमसे नारी ही भलीं कि जिन्होने जप, तुप, यज्ञ, विन किये साहस कर जा श्रीकृष्ण के दरसन किये औ अपने हाथों विन्हें भोजन दिया । ऐसे पछताय मथुरियों ने अपनी स्त्रियों के सनसुख हाथ जोड़ कहा कि धन्य भाग तुम्हारे जो हरि की दरसन कर आई, तुम्हारा ही जीवन सुफल है ।।