सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७३ )


आनंद में रहते हैं, यह इंद्रपूजा की रीति हमारे यहाँ पुरुषाओं के आगे से चली आती है, कुछ आजही नई नहीं निकाली । नंदजी से इतनी बात सुन श्रीकृष्णचंद बोले-है पिता, जो हमारे बड़ो ने जाने अनजाने इन्द्र की पूजा की तो की, पर अब तुम जान बूझकर धर्म पंथ छोड़ अब बाट क्यों चलते हो । इन्द्र के मानने से कुछ नहीं होता क्योंकि वह भक्ति मुक्ति का दाता नहीं औ जिससे रिद्धि सिद्धि किसने पाई है । यह तुमही कहो जिनने किसे बर दिया है ।

हॉ एक बात यह है कि तप यज्ञ करने से देवताओं ने अपना राजा बनाय इन्द्रासन दे रखा है, इससे कुछ परमेश्वर नहीं हो सकता । सुनो, जब असुरों से बार बार हारता है, तब भाग के कहीं जा छिपकर अपने दिन काटता है। ऐसे कायर को क्यों मानो, अपना धर्म किस लिये नही पहचानो । इन्द्र का किया कुछ नहीं हो सकता, जो कर्म मे लिखा है सोई होता है । सुख, संपत, दारा, भाई, बन्धु, ये भी सब अपने धर्म कर्म से मिलते हैं, और आठ मास जो सूरज जल सोखता है सोई चार महीने बरसता है, तिसीसे पृथ्वी में तृन, जल, अन्न होता है और ब्रह्मा ने जो चारों बरन बनाये हैं, ब्राह्मच, क्षत्रीवैश्य, सूद्र, तिनके पीछे भी एक एक कर्म लगा दिया है कि ब्राह्मन तो वेद विद्या पढ़े, क्षत्री सबकी रक्षा करे, वैश्य खेती बनज, और सूद्र इन तीनो की सेवा में रहैं ।

पिता, हम वैश्य हैं, गायें बढ़ीं, इससे गोकुल हुआ, तिसीसे नाम गप पड़ गया । हमारा यह कर्म है कि खेती बनज करें और गौ ब्राह्मण की सेवा में रहै । वेद की आज्ञा है कि अपनी