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अट्ठाइसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, भोर होते ही सब गाये औ ग्वाल बालों को संग कर अपनी अपनी छाक ले कृष्ण बलराम बैन बजाते औ मधुर सुर से गाते जो धेनु चरावन बन को चले तो राजा इन्द्र सकल देवताओं को साथ लिये कामधेनु को आगे किये, ऐरावत हाथी पर चढ़ा, सुरलोक से चला चला बृंदावन में आय, बन की बाट रोक खड़ा हुआ। जद श्रीकृष्णचंद उसे दूर से दिखाई दिये तद गज से उतर, नंगे पाओ, गले में कपड़ा डाले, थर थर काँपता आ श्रीकृष्ण के चरनो पर गिरा और पछताय पछताय रो रो कहने लगा कि हे अजनाथ, मुझ पर दया करो।

मैं अभिमान गर्न अति किया। राजस तामस में मन दिया॥
धन मद कर संपति सुख माना। भेद न कुछ तुम्हारा जाना॥
तुम परमेश्वर सब के ईस। और दूसरों को जगदीस॥
ब्रह्मा रुद्र आदि बरदाई। तुम्हरी दुई संपदा पाई॥
जगत पिता तुम निरामनिवासी। सेचत नित कमला भई दासी॥
जन के हेत लेत औतार। तब तब हरत भूमि कौ भार॥
दूर करौ सब चूक हमारी। अभिमानी मूरख हौ भारी॥

जब ऐसे दीन हो इन्द्र ने स्तुति करी तब श्रीकृष्णचंद दयाल ह बोले कि अब तो तू कामधेनु के साथ आया इससे तेरा अपराध क्षमा किया, पर फिर गर्व मत कीजो क्योकिं गर्व करने से ज्ञान जाता है औ कुमति बढ़ती है, उससे अपमान होता है।