श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन नंदजी ने संयम कर एकादशी व्रत किया। दिन तो स्नान, ध्यान, भजन, जप, पूजा में काटा और रात्रि जागरन में बिताई। जब छ घड़ी रैन रही औ द्वादशी भई, तब उठके देह शुद्ध कर भोर हुआ जान धोती, अँगोछा, झारी, ले जमुना न्हान चले, तिनके पीछे कई एक ग्वाल भी हो लिये। तीर पर जाय प्रनाम कर कपड़े उतार नंद जी जो नीर में पैठे, तो बरुन के सेवक जो जल की चौकी देते थे कि कोई रात को न्हाने न पावे, विन्होने जा बरुन से कहा कि महाराज कोई इस समै जमुना में न्हाय रहा है, हमें क्या आज्ञा होती है। बरुन बोला―विसे अभी पकड़ लाओ। आज्ञा पातेही सेवक फिर वहाँ आए, जहाँ नंदजी स्नान कर जल में खड़े जप करते थे। आतही अचानक नागफाँस डाल नंदजी को बरुन के पास ले गये, तब नंदजी के साथ जो ग्वाल गये थे विन्होने आय श्रीकृष्ण से कहा कि महाराज, नंदरायजी को वरुन के गन जमुना तीर से पकड़ वरुनलोक को ले गये। इतनी बात के सुनते ही श्रीगोबिद क्रोध कर उठ धाये औ पल भर में वरुन के पास जा पहुँचे। इन्हें देखतेही वह उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ विनती कर बोला―
सफल जन्म है आज हमारौ। पायो यदुपति दरस तुम्हारौ॥
कीजे दोष दूर सब मेरे। नंद पिता इस कारन• घेरे॥
तुमकौ सब के पिता बखानै। तुम्हरे पिता नहीं हम जाने॥