रात का न्हाते देख अनजाने, गन पकड़ लायें, भला इसी मिस मैने दरसन आपके पाये। अब दया कीजे, मेरा दोष चित्त में न लीजे। ऐसे अति दीनता कर बहुतसी भेद लाय नंद औ श्रीकृष्ण के आगे धर, जद बरुन हाथ जोड़ सिर नाय सनमुख खड़ा हुआ, तद श्रीकृष्ण भेंट ले पिता को साथ कर वहाँ से चल बृंदावन आए। इनको देखते ही सब ब्रजबासी आय मिले। तिस समै बड़े बड़े गोपों ने नंदराय से पूछा कि तुम्हें बरुन के सेवक कहाँ ले गये थे। नंद जी बोले―सुनो, जो वे यहाँ से पकड़ मुझे बरुन के पास ले गये, तोही पीछे से श्रीकृष्ण पहुँचे, इन्हें देखते ही वह सिंहासन से उतर पाओ पर गिर अति बिनती कर कहने लगा—नाथ मेरा अपराध क्षमी कीजे, मुझसे अनजाने यह दोष हुआ सो चित्त में न लीजे। इतनी बात नंदजी के मुख से सुनतेही गोप अपिस में कहने लगे कि भाई, हमने तो यह तभी जाना था जब श्रीकृष्णचंद ने गोबर्द्धन धारन कर ब्रज की रक्षा करी, कि नंद महर के घर में आदि पुरुष ने आय औतार लिया है।
ऐसे आपस में बतराय फिर सब गोपों ने हाथ जोड़ श्रीकृष्ण से कहा कि महाराज, आपने हमें बहुत दिन भरमाया, पर अब सब भेद तुम्हारा पाया। तुम्हीं जगत के करता दुखहरता हो। त्रिलोकीनाथ, दया कर अब हमें बैकुंठ दिखाइये। इतना बचन सुन श्रीकृष्णजी ने छिन भर में बैकुंठ रच विन्हें ब्रजही में दिखाया। देखते ही ब्रजवासियो को ज्ञान हुआ तो कर जोड़ सिर झुकाय बोले―हे नाथ, तुम्हारी महिमा अपरंपार हैं, हम कुछ कह नहीं सकते, पर आपकी कृपा से आज हमने यह जाना कि