पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
तीसवाँ अध्याय

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले―

जैसे हरि गोपिन सहित, कीनौ रास विलास।
सो― पंचाध्याई कहो, जैसो बुद्धि प्रकास॥

जब श्रीकृष्ण ने चीर हरे थे तब गोपियों को यह बचन दिया था कि हम कार्तिक महीने में तुम्हारे साथ रास करेगे, तभी से गोपी रास की आस किये मन में उदास रहें औ भित उठ कार्तिक मास ही को मनाया करें। दैवी उनके मनाते मनाते सुखदाई सरद ऋतु आई।

लाग्यौ जब से कार्तिक मास। घाम सीत बरषा कौ नास॥
निर्मल जल सरबर भर रहे। फूले कँवल होय डहडहे॥
कुमुद चकोर कंत कामिनी। फूलहिं देख चंद्रजामिनी॥
चकई मलिन कँवल कुम्हलाने। जे निज मित्र भानु कौ माने॥

ऐसे कह श्रीशुकदेव मुनि फिर बोले कि पृथ्वीनाथ, एक दि॰ श्रीकृष्णचंद कार्तिक पून्यो की रात्रि को घर से निकल बाहर आय देखे तो निर्मल आकाश में तारे छिटक रहे हैं, चॉदनी दसो दिसा में फैल रही है। सीतल सुगंध सहित मंद गति पौन बह रही है। औ एक और सघन बन की छबि अधिक ही सोभा दे रही है। ऐसा समा देखते ही उनके मन में आया कि हमने गोपियो को यह बचन दिया है जो सरद ऋतु में तुम्हारे साथ रास करेंगे, सो पूरा किया चाहिये। यह बिचारकर बन में जाय श्रीकृष्ण ने