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किया। इन पुस्तकों के नाम सिहासनबत्तीसी, बैतालपचीसी, शकुंतला नाटक और माधोनल है ।

आगरे के तैराक बहुत प्रसिद्ध होते है और लल्लजी भी वहाँ के निवासी होने के कारण तैरना अच्छा जानते थे । दैवात् एक दिन उन्होने तट पर टहलते समय एक अँगरेज को गंगाजी में डूबते देखा । तब उन्होंने निडर होकर झटपट कपड़े उतार डाले और गंगाजी में कूद दो ही गोते में उसे निकाल लिया । वह अँगरेज ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई पदाधिकारी था। उसने अपने ! णिरक्षक की पूरी सहायता की और इन्हें कुछ धन देकर छापाखाना खुलवा दिया । उसी के अनुरोध से फोर्ट विलियम कालेज में इनकी वि० सं० १८५७'भे पचास रुपए मासिक की आजीविका लग गई। बस इसके अनंतर इनकी प्रतिष्ठा और ख्याति बराबर बृढ़ती चली गई। उन्होंने अपने प्रेस में, जिसका नाम संस्कृत प्रेस रखा था, अपनी पुस्तके छपवाकर बेचना आरंभ कर दिया । कंपनी ने भी इस प्रेस के लिये बहुत कुछ सहायता दी जिससे इसमें छपाई का अच्छा पबंध हो गया । यह यंत्रालय पहले पदलडॉगा में खोला गया था। इनके प्रेस की पुस्तक पर सर्वसाधारण की इतनी श्रद्धा हो गई थी कि इनकी प्रकाशित रामायण ३०) ४०), ५०) को और प्रेमसागर १५), २०), ३०) को थिक जाते थे । इनके छापेखाने के छपे हुए ग्रंथो को एक शताब्दी से अधिक _________________________________________________

१ विहारीविहार और सरस्वती के द्वितीय वर्ष की २ री सख्या में स० १८५७ वि० को सन् १८०४ ई० माना है, जो अशुद्ध है । सन् १८०० इ० चाहिए। देखिये जी. ए. प्रिअर्सन संपादित लालचद्रिका पु० १२ ।