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होगया, पर वे ऐसे उत्तम, मोटे और सफेद बाँसी कागज पर छपे थे कि अब तक नए और दृढ़ बने हुए हैं ।

लल्लूजी चौबीस वर्ष तक फोर्ट विलियम कालेज में अध्यापक रहे और वि० सं० १८८१ मे पेंशन लेकर स्वदेश लौटे । वे अपना छापाखाना भी आते समय नाव पर लादकर साथ ही आगरे लाए और वहाँ उसे खोला । अगरे में इस छापेखाने को जमाकर ये कलकत्ते लौट गए और वहीं इनकी मृत्यु हुई। इनकी कब और कैसे मृत्यु हुई, इसका नुते इनके जन्म के समय के समान निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हुआ । परंतु पैशन लेते समय इनकी अवस्था लगभग ६० वर्ष के हो चुकी थी ।

यद्यपि इनके भाइयों को संतान थी, पर ये निस्संतान ही रहे । इनकी पत्नी को इन पर असाधारण प्रम था और वे इनके कष्ट के समय बराबर इनके साथ रहो । ये वैष्णव तो अवश्य ही थे, पर किस संप्रदाय के थे, सो ठीक नहीं कहा जा सकता । संभवतः ये राधावल्लभीय ज्ञात होते है ।

इतना तो स्पष्ट ही विदित है कि ये कोई उत्कट विद्वान् नहीं थे और न किसी विद्या के आचार्य होने का गर्व ही कर सकते थे । संस्कृत का बहुत कम ज्ञान रखते थे, उर्दू और अंगरेजी भी कुछ कुछ जानते थे, पर व्रज भाषा अच्छी जानते थे। कवि भी ये कोई उच्च कोटि के नहीं थे । परंतु जिस समय थे अपनी लेखनी चला रहे थे, उस समय ये वास्तव में ठेठ हिंदी का स्वरूप स्थिर कर रहे थे । हिदी गद्य के कारण ही ये प्रसिद्ध और विख्यात हुए हैं। कुछ लोगो का यह कथन है कि यदि येआजक तोल होते