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अब चार घड़ी रात रही है तुम सब अपने घर जाओ। इतना बचन सुन, उदास हो गोपियों ने कहा—नाथ, आपके चरनकॅबल छोड़के घर कैसे जाँय, हमारा लालची मन तो कहा मानता ही नहीं। श्रीकृष्ण बोले कि सुनौ, जैसे जोगी जन मेरा ध्यान धरते है, तैसे तुम भी ध्यान कीजियो, मैं तुम्हारे पास जहाँ रहोगी तहाँ रहूँगा। इतनी बात के सुनते ही संतोष कर सब विदा हो अपने अपने घर गई औ यह भेद उनके घरवालो में से किसी ने न जाना कि ये यहाँ न थीं।

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेव मुनि से पूछा कि दीनदयाल, यह तुम मुझे समझाकर कहो जो श्रीकृष्णचंद तो असुरों को मार पृथ्वी का भार उतारने औ साध संत को सुख दे धर्म का पंथ चलाने के लिये औतार आये थे, विन्होने पराई स्त्रियो के साथ रास बिलास क्यों किया, यह तो कुछ लंपट का कर्म है जो विरानी नारी से भोग करें। शुकदेवजी बोले,―

सुन राजा यह भेद न जान्यौ। मानुष सम परमेश्वर मान्यौ॥
जिनके सुमिरे पातक जात। तेजवंत पावन है गात॥
जैसे अग्नि मॉझ कुछ परै। सोऊ अग्नि होय कै जरै॥

सामर्थी क्या नहीं करते क्यौकि वे तो करके कर्म की हानि करते है, जैसे शिवजी ने विष लिया औ खाके केंट को भूषन दिया, औ काले सॉप का किया हार, कौन जाने उनका व्यौहार। वे तो अपने लिये कुछ भी नहीं करते जो विनका भजन सुमिरन कर कोई वर मांगता है तैसाही तिसको देते है।

उनकी तो यह रीति है कि सब से मिले दृष्ट आते है औ ध्यान कर देखिये तो सब ही से ऐसे अगले जनाते हैं जैसे जल से