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यह अक्रूर अक्रूर है भारी। जानी कछु ने पीर हमारी॥
जा बिन छिन सब होति अनाथ। ताहि ले चल्यो अपने साथ॥
कपदी क्रूर कठिन मन भयौ। नाम अक्रूर वृथा किन दयौ॥
हे अक्रूर कुटिल मतिहीन। क्यौं दाहत अबला आधीन॥

ऐसे कड़ी कड़ी बातें सुनाय, सोच संकोच छोड़, हरि का रथ पकड़ आपस मैं कहने लगी―मथुरा की नारियाँ अति चंचल, चतुर, रूप गुन भरी हैं, उनसे प्रीति कर गुन औ रस के बस हो वहाँ ही रहेंगे बिहारी, तब काहे को करेगे सुरत हमारी। उन्हीं के बड़े भाग हैं जो प्रीतम के संग रहैंगी, हमारे जप तप करने में ऐसी क्या चूक पड़ी थी, जिससे श्रीकृष्णचंद बिछड़ते हैं। यो आपस में कह फिर हरि से कहने लगीं, तुम्हारा तो नाम है गोपीनाथ, किस लिये नही ले चलते हमें अपने साथ॥

तुम बिन छिन छिन कैसे कटै। पलक ओढे भये छाती फटै॥
हित लगाय क्यौं करत विछोह। निठुर निर्दई धरत न मोह॥
ऐसे तहॉ जपैं सुंदरी। सोचें दुख समुद्र में परी॥
चाहि रहीं इकटक हरि ओर। ठगी मृगी सी चंद चकोर॥
परहिं नैन हैं आँसू टूट। रहीं बिथुरि लट मुख पर छूट॥

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि राजा, उस समै गोपियों की तो यह दसा थी जो मैने कही औ जसोदा रानी ममता कर पुत्र को कंठ लगाय रो रो अति प्यार से कहती थीं कि बेटा, जै दिन में तुम वहाँ से फिर आओ, तै दिन के लिये कलेऊ ले जाओ, तहाँ जाय किसी से प्रीति मत कीजो, वेग आय अपनी जननी को दरसन दीजो। इतनी बात सुन श्रीकृष्ण रथ से उतर सबको समझाय बुझाय, मा से बिदा दंडवत कर असीस ले, फिर रथ पर