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बयालीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जद श्रीकृष्णचंद ने नट माया की भाँति जल में अनेक रूप दिखाय हर लिये, तद अक्रर जी ने नीर से निकल तीर पर आ हरि को प्रनाम किया। तिस काल नंदलाल ने अक्रूर से पूछा कि कका, सत समै जल के बीच इतनी बेर क्यों लगी? हमे यह अति चिता थी तुम्हारी, कि चचा ने किस लिये बाट चलने की सुधि बिसारी, क्या कुछ अचरज तो जाकर नहीं देखा, यह समझाय के कहो जो हमारे मन की दुबधी जाय।

सुनि अक्रूर कहे जोरे हाथ। तुम सब जानत हौ ब्रजनाथ॥
भलौ दुरस दीन जल माहिं। कृष्णचरित को अचरज नाहि॥
मोहि भरोसौ भयौ तिहारौ। बेग नाथ मथुरा पग धारौ॥

अब यहाँ विलंब न करिये शीघ्र चल कारज कीजे। इतनी बात के सुनतेही हरि झट रथ पर बैठ अक्रूर को साथ ले चल खड़े हुए। है नंद आदि जो सब गोप ग्वाल आगे गये थे उन्होने जा मथुरा के बाहर डेरो किये, औ कृष्ण बलदेव की बाट देख देख अति चिता कर आपस में कहने लगे, इतनी अबेर न्हाते क्यो लगी और किस लिये अबतक नहीं आए हरी, कि इस बीच चले चले आनंदकंद श्रीकृष्णचंद भी जाय मिले। उस समै हाथ जोड़ सिर झुकाय बिनती कर अक्रूरजी बोले कि ब्रजराज, अब चलके मेरा घर पवित्र कीजे औ अपने भक्तो को दरस दिखाय सुख दीजे। इतनी बात के सुनतेही हरि ने अक्रूर से कहा―