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तैंतालिसवाँ अध्याय

श्री शुकदेवजी बोले कि पृथ्वीनाथ, माली की लगन देख मगन हो श्रीकृष्णचंद विसे भक्ति पदारथ दे, वहाँ से आगे जाय देखे तो सोही गली में एक कुबड़ी केसर चंदन से कटोरिया भरे थाली के बीच धरे लिए हाथ में खड़ी है। उससे हरि ने पूछा― तू कौन है औ यह कहाँ ले चली है। यह बोली―दीनदयाल मैं कंस की दासी हूँ, मेरा नाम है कुबजा, नित चंदन घिस कंस को लगाती हूँ, औ मन से तुम्हारे गुन गाती हूँ। तिसीके प्रताप से आज आपका दर्शन पाय जन्म सार्थक किया, औ नैनो का फल लिया। अब दासी का मनोरथ यह है कि जो प्रभु की आज्ञा पाऊँ तो चंदन अपने हाथो चढ़ाऊँ।

उसकी अति भक्ति देख हरि ने कहा―जो तेरी इसी में प्रसन्नता है तो लगाव। इतना वचन सुनतेही कुबजा ने बड़े राव चाव से चित्त लगाय जब राम कृष्ण को चंदन चरचा, तब श्रीकृष्णचंद ने उसके मन की लारा देख दया कर पाँव पर पाँव धर, दो उँगली ठोढ़ी के तले लगाय उचकाय विसे सीधा किया। हरि का हाथ लगतेही वह महा सुंदरी हुई औ निपट विनती कर प्रभु से कहने लगी कि कृपानाथ, जो अपने कृपा कर इस दासी की देह सूधी की, तोही दयाकर अब चलके घर पवित्र कीजै औ विश्राम ले दासी को सुख दीजे। यह सुन हरि उसका हाथ पकड़ मुस्कुराय के कहने लगे―

तै श्रम दूर हमारौ कियौ। मिल कै सीतल चंदन दियौ।
रूप सील गुन सुंदरि नीकी। तोसों प्रीति निरंतर जी की।
आय मिलौगो कंसहि भारि। यो कह आगे चले मुरारि।