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ज्यो काठहि घुन खात है, कोउ न जाने पीर।
त्यो चिता चित में भये, बुद्धि बल घेत शरीर॥

निदान अति घबराया तब मंदिर में जाय सेज पर सोया, पर उसे मारे डर के नींद न आई।

तीन पहर निस जागत गई। लागी पलक नींद छिन भई
तब सपनौ देख्यौ मन मांह। फिरे सीस बिन धर की छाह॥
कबहूँ नगन रेत में न्हाय। धावै गदहा चढ़ विष खाय॥
बसे मसान भूत संग लिये। रक्त फूल की माला हिये॥
बरत रूप देखै चहुँ ओर। तिन पर बैठे बाल किशोर॥

महाराज, जब कंस ने ऐसा सपना देखा तब तो वह अति व्याकुल हो चौक पड़ा औ सोच विचार करता उठकर बाहर आया, अपते मंत्रियों को बुलाय बोला―तुम अभी जाओ रंगभूमि को झड़वाय छिड़कवाय सँवारों और नंद उपनंद समेत सब ब्रजबासियो को औ बसुदेव आदि यदुबंसियो को रंगभूमि में बुलाय बिठाओ, औ सब देस देस के जो राज आए हैं तिन्हें भी, इतने में मै भी आता हूँ।

कंस की आज्ञा पाय मंत्री रंगभूमि आए, उसे झड़वाय छिड़कवाय तहाँ पार्टवर छाय बिछाय, ध्वजा पताका तोरन बंदनवार बंधवाय, अनेक अनेक भांति के बाजे बजवाय, सबको बुलाय भेजा। वे आए औ अपने अपने मंच पर जाय जाये बैठे। इस बीच राजा कंस भी अति अभिमान भरा अपने मचान पर आय बैठा। उस काल देवता विमानों में बैठे आकाश से देखने लगे।

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