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चौआलीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, भोरही जब नंद उपनंद आदि सब बड़े बड़े गोप रंगभूमि की सभा में गये, तब श्रीकृष्णचंदजी ने बलदेव जी से कहा कि भाई, सब गोप आगे गये, अब विलंब न करिये, शीघ्र ग्वालबाल सखाओं को साथ ले रंगभूमि देखने चलिये।

इतनी बात के सुनतेही बलरामजी उठ खड़े हुए औ सब ग्वाल सखाओं से कहा कि भाइयो, चलो रंगभूमि की रचना देख आवे। यह बचन सुनतेही तुरंत सब साथ हो लिये, निदान श्रीकृष्ण बलराम नटवर भेप किये, ग्वालबाल सुखाओ को साथ लिये, चले चले रंगभूमि की पौर पर आय खड़े हुए, जहाँ इस सहस्त्र हाथियो का बलवाला गज कुबलिया खड़ा झूमता था।

देखि मतंग द्वार मतवारौ। गजपालहि बलराम पुकारौ।
सुनो महावत बात हमारी। लेहु द्वार ते गज तुम टारी।
जान देहु हम को नृप पास। ना तर ह्वैहै गज को नास॥
कहे देत नहि दोष हमारौ। मत जाने हरि कौं तू बारौ॥

ये त्रिभुवनपति हैं, दुष्टों को मार भूमि का भार उतारने को आए है। यह सुन महावत क्रोध कर बोला―मैं जानता हूँ, गौ चराय के त्रिभुवनपति भए है, इसीसे यहाँ आय बड़े सूर की भॉति अड़े खड़े है। धनुष का तोड़ना न समझियो, मेरा हाथी दस सहस्र हाथियों का बल रखता है, जब तक इससे न लड़ोगे तब तक भीतर न जाने पाओगे। तुमने तो बहुत बली मारे हैं