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ने देवताओं से कहा―कृपानाथ, मुझे कहीं कृपा कर ऐसी एकान्त ठौर बताइये कि जहाँ जाय मैं निचंताई से सोऊँ औ कोई न जगावे। इतनी बात के सुनते ही प्रसन्न हो देवताओं ने मुचकुंद से कहा कि महाराज, आप धौलागिरि पर्वत की कन्दरा में जाय सयन कीजिये, वहाँ तुम्हें कोई न जगावेगा औ जो कोई जाने अनजाने वहाँ जाके तुम्हें जगावेगा, तो वह देखते ही तुम्हारी दृष्ट से जल बल राख हो जावेगा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज ऐसे देवताओं से बर पाय मुचकुन्द विस गुफा में सो रहा था। इससे उसकी दृष्टि पड़तेही कालयवन जखकर छार हो गया। आगे करुनानिधान कान्ह भक्तहितकारी ने मेघबरन, चंदमुख, कँवलनैन, चतुर्भुज हो, शंख, चक्र, गदा, पद्म लिये,,मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, बनमाला औ पीताम्बर पहरे मुचकुन्द को दरसन दिया। प्रभु का स्वरूप देखतेही वह अष्टांग प्रनाम कर खड़ा हो हाथ जोड़ बोला कि कृपानाथ, जैसे आपने इस महा अँधेरी कन्दरा में आय उजाला कर तम दूर किया, तैसे दया कर अपना नाम भेद बताय मेरे मन का भी भरम दूर कीजे।

श्रीकृष्णचंद बोले कि मेरे तो जन्म कर्म और गुन हैं घने, वे किसी भाँति गने न जायँ। कोई कितना ही गिने। पर मैं इस जन्म का भेद कहता हूँ सो सुनौ अब के वसुदेव के यहाँ जन्म लिया इससे बासुदेव मेरा नाम हुआ औ मथुरा पुरी में सब असुरो समेत कंस को मैनेही मार भूमि का भार उतारा, औ सत्रह बेर तेईस तेईस अक्षौहिनी सेना ले जरासन्ध युद्ध करने को चढ़ि आयी, सो भी मुझसे हारा और यह कालयवन तीन कड़ोड़