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म्लेच्छ की भीड़ भाड़ ले लड़ने को आया था सो तुम्हारी दृष्ट से जल मरा। इतनी बात प्रभु के मुख से निकलते ही सुनकर मुचकुंद को ज्ञान हुआ तो बोला कि महाराज आपकी माया अति प्रबल है, उसने सारे संसार को मोहा हैं, इसी से किसीकी कुछ सुध बुद्धि ठिकाने नहीं रहती।

करत कर्म सब सुख के हेत। ताते भारी दुख सहि लेत॥
चुभे हाड़ ज्यौं स्वान मुख, रुधिर चचोरे आप।
जानत ताही से चुवत, सुख माने संताप॥

और महाराज, जो इस संसार में आया है सो गृहरूपी अंधकूप से बिन आपकी कृपा निकल नहीं सकता, इससे मुझे भी चिता है कि मैं कैसे गृहरूप कूप से निकलूँगा। श्रीकृष्णजी बोलेसुन मुचकुन्द बात तो ऐसे ही है, जैसे तूने कही, पर मै तेरे तरने का उपाय बता देता हूँ सो तू कर। तैने राज पाय, भूमि, धन, स्त्री के लिये अधिक अधर्म किये हैं सो बिन तप किये न छूटेगे, इससे उत्तर दिस में जाय तु तपस्या कर। यह अपनी देह छोड़ फिर ऋषि के घर जन्म लेगा, तब तू मुक्ति पदारथ पावेगा। महाराज, इतनी बात जो मुचकुन्द ने सुनी तो जाना कि अब कलियुग आया। यह समझ प्रभु से बिदा हो दण्डवत कर, परिक्रमा दे मुचकुन्द तो बद्रीनाथ को गया, और श्रीकृष्णचंदजी ने मथुरा में आय बलरामजी से कहा—

 
कालयवन कौ कियौ निकंद। बद्री दिस पठयौ मुचकुन्द।
कालयवन की सेना घनी। तिन घेरी मथुरा आपनी।
आवहु तहाँ मलेछन मारै। सकल भूमि को भार उतारै।

ऐसे कह हलधर को साथ ले श्रीकृष्णचंद मथुरा पुर से निकल