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जाय, एक सुथरे जड़ाऊ खटछप्पर में लिटाया। महाराज, वह भी बाट का हारा थका तो थाही लेटतेही सुख पाय सो गया श्रीकृष्णजी कितने एक बेर तक तो उसकी बाते सुनने की अभि- लाषा किये वहाँ बैठे मन ही मन कहते रहे कि अब उठे अब उठे। निदान जब देखा कि न उठा तब आतुर हो उसके पैताने बैट लगे पाँव दबाने। इसमें उसकी नीद टूटी तो वह उठ बैठा तद हरि ने विसकी क्षेम कुशल पूछ, पूछा―

नीकौ राजदेस तुम तनौ। हम सो भेद कहो आपनौ॥
कौन काज ह्याँ प्रविन भयौ। दरस दिखाय हमें सुख दयौ॥

ब्राह्मन बोला कि कृपानिधान, आप मन दे सुनिये, मैं अपने आने का कारन कहता हूँ कि महाराज, कुंडलपुर के राजा भीष्मक की कन्या ने जब से आपका नाम औ गुन सुना है तभी से वह निस दिन तुम्हारा ध्यान किये रहती है, औ कॅवलचरन की सेवा किया चाहती थी और संयोग भी आय बना था, पर बात बिगड़ गई। प्रभु बोले सो क्या? ब्राह्मन ने कहा, दीनदयाल, एक दिन राजा भीष्मक ने अपने सब कुटुंब औ सभा के लोगो को बुलाय के कहा कि भाइयो, कन्या ब्याह जोग भई अब इसके लिए बेर टहराया चाहिये। इतना बचन राजा के मुख से निकलतेही विन्होने अनेक अनेक राजाओ का, कुल, गुन, नाम औ पराक्रम कह सुनाया, पर इनके मन में न आया तद रुक्मकेश ने आपका नाम लिया, तो प्रसन्न हो राजा ने उसका कहना मान लिया, और सबसे कहा कि भाइयो, नेरे मन में तो इसकी बात पत्थर की लकीर हो चुकी, तुम क्या कहते हो? वे बोले–महाराज, ऐसा घर, बर जो त्रिलोकी ढूँढ़ियेगा तो भी न पाइयेगा। इससे अब