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पुनि जितने आयुध उसने लिये, हरि ने सब काट काट गिरा दिये। तब तो वह अति झुंझलाय फरी खाँड़ा उठाय रथ से कूद श्रीकृष्णचंद की ओर यो झपटा कि जैसे बावला गीदड़ गज पर आवे, के जो पतंग दीपक पर धावे। निदान जाते ही उनने हरि के रथ पर एक गदा चलाई कि प्रभु ने झट उसे पकड़ बाँधा औ चाहा की मारे। इसमें रुक्मिनीजी बोलीं-

मारो मत भैया है मेरौ। छाँड़ौ नाथ तिहारौ चेरौ॥
मूरख अंध कहा यह जाने। लक्ष्मीकंतहि मानुष माने॥
तुम योगेश्वर आदि अनंत! भक्त हेत प्रगटत भगवंत॥
यह जड़ कहा तुम्हें पहचाने। दीनदयाल कृपाल बखाने॥

इतना कह फिर कहने लगी कि साधु जड़ औ बालक का अपराध मन में नहीं लाते, जैसे कि सिंह स्वान के भूंकने पर ध्यान नहीं करता और जो तुम इसे मारोगे तो होगा मेरे पिता को सोग, यह करना तुम्हें नहीं है जोग। जिस ठौर तुम्हारे चरन पड़ते हैं, तहाँ के सब प्रानी आनंद में रहते हैं। यह बड़े अचरज की बात है कि तुम सा सगा रहते राजा भीष्मक पुत्र का दुख पावे। महाराज, ऐसे कह एक बार तो रुक्मिनीजी यों बोली, कि महाराज, तुमने भला हित संबंधी से किया, जो पकड़ बाँधा औ खड्ग हाथ में ले मारने को उपस्थित हुए। पुनि अति ब्याकुल हो थरथराय, आँखें डबडबाय बिसूर बिसूर पाँओ पड़ गोद पसार कहने लगी।

बंधु भीख प्रभु मोकौ देउ। इतनों जस तुम जग में लेउ।

इतनी बात के सुनने से औ रुक्मिनीजी की ओर देखने से, श्रीकृष्णचंदजी का सब कोप शांत हुआ। तब उन्होंने उसे जीव