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भला बुरा, हार जीत, संयोग बियोग मनही मन से मान लेते हैं, पै इसमें हरष शोक जीव को नहीं होता। तुम अपने भाई के बिरूप होने का चिता मत करो क्योकि ज्ञानी लोग जीव अमर, देह का नास कहते है। इस लेखे देह की पत जाने से कुछ जीव की नहीं गई।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि धर्मावतार, जब बलरामजी ने ऐसे रुक्मिनी को समझाया, तब

सुनि सुंदरि मन समझकै, किये जेठ की लाज।
शैन मांहि पिय सो कहत, हाँकहु रथ ब्रजराज॥
घूँघट ओट बदन की करै। मधुर बचन हरि सो उच्चरै॥
सनमुख ठाढ़े हैं बलदाऊ। अहोकंत रथ बेग चलाऊ॥

इतना बचन श्रीरुक्मिनीजी के मुख से निकलतेही, इधर तो श्रीकृष्णचंदजी ने रथ द्वारिका की ओर हाँका औ उधर रुक्म अपने लोगो मे जाय अति चिता कर कहने लगा कि मैं कुंडलपुर से यह पैज करके आया था कि अभी लाय कृष्ण बलराम को सब यदुबंसियो समेत मार रुक्मिनी को ले आऊँगा सो मेरा प्रन पूरा न हुआ और उलटी अपनी पत खोई। अब जीता न रहूँगा, इस देश औ गृहस्थाश्रम को छोड़ बैरागी हो कहीं जाय मरूँगा।

जब रुक्म ने ऐसे कहा तब उसके लोगों में से कोई बोला-महाराज, तुम महाबीर हो औ बड़े प्रतापी, तुम्हारे हाथ से जो बे जीते बच गये, सो विनके भले दिन थे, अपनी प्रारब्ध के बल से निकल गये, नहीं तो आपके सनमुख हो कोई शत्रु कब जीता बच सकता है। तुम सज्ञान हो, ऐसी बात क्यो बिचारते हो। कभी हार होती है कभी जीत, पर सूर बीरो का धर्म है जो साहस