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औ प्रीति समान ही से कीजे। तू हमारा भरोसा मत रख, हम श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के सेवक है, विनसे बैर करना हमे नहीं सोभता। जहाँ तेरे सींग समाय तहाँ जा।

महाराज, इतनी बात सुन सतधन्वा निपट उदास हो वहाँ से चल अक्रूर के पास आया। हाथ बाँध सिर नाय, विनती कर हाहा खाय कहने लगा, कि प्रभु तुम हो यादव पति ईस, तुम्हे मानके सब निवावते है सीस। साध दयाल धरन तुम धीर, दुख सह आप हरते हो पर पीर। वचन कहे की लाज है तुम्हें, अपनी सरन रक्खो तुम हमे। मैने तुम्हारा ही कहा मान यह काम किया, अब तुम ही कृष्ण के हाथ से बचाओ।

इतनी बात के सुनते ही अकरजी ने सतधन्वा से कहा कि तू बड़ा मूरख है जो हमसे ऐसी बात कहता है, क्या तू नहीं जानता कि श्रीकृष्णचंद सबके करता दुखहरता है, उनसे बैर कर संसार वे कब कोई रह सकता है। कहनेवाले का क्या बिगड़ा, अब तो तेरे सिर आन पड़ी। कहा है, सुर नर मुनि की यही है रीति, अपने स्वारथ के लिए करते है प्रीति। और जगत मे बहुत भाँति के लोग है, सो अनेक अनेक प्रकार की बाते अपने स्वारथ की कहते है, इससे मनुष्य को उचित है किसी के कहे पर न जाय, जो काम करे तिसमे पहले अपना भला बुरा विचार ले, पीछे उस काज मे पाँव दे। तूने समझ बूझकर किया है काम, अब तुझे कहीं जगत मे रहने को नहीं है धाम। जिसने श्रीकृष्ण से बैर किया, वह फिर न जिया। जहाँ भागके रहा तहाँ मारा गया। मुझे मरना नही जो तेरा पक्ष करूँ, संसारमे जी सबको प्यारा है।

महाराज, अकरजी ने जब सतधन्वा को यो रूखे सूखे बचन