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पड़ा, तब काशी का राजा सुफलक को बुलाय ले गया। महाराज, सुफलक के जातेही उस देस मे मेह मन मानता बरसा, समा हुआ औ सब का दुख गया। पुनि काशी पुरी के राजा ने अपनी लड़की सुफलक को ब्याह दी, ये आनंद से वहाँ रहने लगे। विस राजकन्या का नाम गादिनका*[१] था, तिसी का पुत्र अक्रूर है।

इतना कह सब यादो बोले कि महाराज, हुमतो थह बात आगे से जानते थे अब जो आप आज्ञा कीजे सो करें। श्रीकृष्णचंद बोले कि अब तुम अति आदर मान कर, अक्रूरजी को जहाँ पाओ तहाँ से ले आओ। यह बचन प्रभु के मुख से निकलतेही जब यादव मिल अक्रूर को ढूंढ़न निकले औ चले चले बारानसी पुरी मे पहुँचे, अक्रूर जी से भेटकर, भेट दे, हाथ जोड़ सिरनाय, सनमुख खड़े हो बोले––

चलौ नाथ, बोलत बल स्याम। तुम बिन पुरवासी हैं बिराम॥
जितहीं तुम तितही सुख बास। तुम बिन कष्ट दरिद्र निवास॥
यद्यपि पुर मे श्रीगोपाल। तऊ कष्ट दै पर्‌यौ अकाल॥
साधनि के बस श्रीपति रहै। तिनते सब सुख संपति लहै॥

महाराज, इतनी बात के सुनते ही अकूरजी वहाँ से अति आतुर हो कुटुँब समेत कृतवर्मा को साथ ले, सब यदुबंसियो को लिये बाजे गाजे से चल खड़े हुए और कितने एक दिनों के बीच आ सब समेत द्वारकापुरी में पहुँचे। इनके आने की समाचार पा श्रीकृष्णजी औ बलराम आगे बढ़ आय, इन्हें अति मान सनमान से नगर में लिवाय ले गए। हे राजा, अक्रूरजी के पुरी में प्रवेश करतेही मेह बरसा औ समा हुआ, सारे नगर का दुख


  1. * (ख) में 'गादिनी' नाम लिखा है।

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