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भोलानाथ ने आय उसे मुँह माँगा बर दिया। उस बर के बल से जाय उसने राजा भीषम से अपना पलटा लिया। सो मुझसे न होगा।

अरु तुम नाथ यही समझाई। काहू जाचक करी बड़ाई॥
बाकौ बचन मान तुम लियौ। हम पै विप्र पठै कै दियौ॥
जाचक शिव बिरंच सारदा। नारद गुन गावत सरबदा॥
विप्र पठायौ जान दयाल। आय कियौ दुष्टनि कौ काल॥
दीन जन दासी संग लई। तुम मोहि नाथ बड़ाई दई॥
यह सुनि कृष्ण कहत सुन प्यारी। ज्ञान ध्यान गति लही हमारी॥
सेवा भजन प्रेम तें जान्यौ। तोही सों मेरो मन मान्यौं।

महाराज प्रभ के मुख से इतनी बात सुनते ही संतुष्ट हो रुक्मिनी जी फिर हरि की सेवा करने लगीं।