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महाराज, जद शंकर ने उसे ऐसे कहा समझाय, तद बानासुर ध्वजा ले निज घर को चला सिर नाय। आगे घर जाय ध्वजा मन्दिर पर चढ़ाय, दिन दिन यही मनाता था कि कव वह पुरुष प्रगटे औ मै उससे युद्ध करूँ। इसमे कितने एक बरप बीते उसकी बड़ी रानी जिसका नाम बानावती, तिसे गर्म रहा औ पूरो दिनो एक लड़की हुई। उस काल बानासुर ने जोतिषियों को बुलाय बैठायके कहा कि इस लड़की का नाम श्री गुन गान कर कहो। इतनी बात के कहते ही जोतिषियो ने झट बरप, मास, पक्ष, तिथ बार, घड़ी, महूरत, नक्षत्र टहराय, लग्न विचार उस लड़की का नाम ऊषा धरके कहा कि महाराज, यह कन्या रूप, गुन, शील की खान महाजान होगी, इसके प्रह, औ लक्षन ऐसे ही आन पड़े है।

इतना सुन बानासुर ने अति प्रसन्न हो पहले बहुत कुछ जोतिषियो को दे बिदा किया, पोछे मंगलामुखियो को बुलाय मंगलाचार करवाया। पुनि जो जो वह कन्या बढ़ने लगी, तो तो बानासुर उसे अति प्यार करने लगा। जब ऊपा सात बरष की भई तब उसके पिता ने श्रोनितपुर के निकटही कैलास था तहाँ के एक सखी सहेलियो के साथ उसे शिव पार्वती के पास पढ़ने को भेज दिया। ऊषा गनेश सरस्वती को मनाय, शिव पार्वती के सनमुख जाय, हाय जोड़ा सिर नाय, बिनती कर बोली कि हे कृपासिन्धु शिव गवरी, दया कर मुझ दासी को विद्यादान दीजे औ जगत मे जस लीजे। महाराज, ऊषा के अति दीन बचन सुन शिव पार्वतीजी ने उसे प्रसन्न हो विद्या का प्रारम्भ करवाया। वह नित प्रति जाय जाय पढ़ पढ़ आवे। इसमे कितने एक दिन