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पिता ने एक मन्दिर अति सुंदर निराला उसे रहने को दिया औ यह कितनी एक सखी सहेलियो को ले यहाँ रहने लगी औ दिन दिन बढ़ने। महाराज, जिस काल वह बाल बारह बरष की हुई तो उसके मुखचंद की जोति को देखि, पूर्नवासी का चद्रमा छबिछीन हुआ। बालो की स्यामता के आगे मावस की अँधेरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी की सटकाई लख नागनि अपनी कैंचली छोड़ सटक गई। भौह की बंकाई निरख धनुष धकधकाने लगा। आँखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे। नाक की सुन्दरताई को देख्न तिल फूल मुरझाय गया। उसके अधर की लाली लख बिंबाफल बिलबिलाने लगा। दाँत की पाँति निरख दाडिम का हिया दड़क गया। कपोलो की कोमलताई पेख गुलाब फलने से रहा। गले की गुलाई देख कपोत कलमलाने लगे। कुचो की कोर निरख कँवलकली सरोवर मे जाय गिरी। जिसकी कट की कृसता देख केहरी ने बनवास लिया। जाँघो की चिकनाई पेख केले ने कपूर खाया। देह की गुराई निरख सोने को सकुच भई औ चंपा चप गया। कर पद के आगे पदम की पदवी कुछ न रही। ऐसी बह गजगवनी पिकबयनी नवबाला जोबन की सरसाई से शोभायनान भई कि जिसने इन सबकी शोभा छीन ली।

आगे एक दिन वह नवजौबना सुगंध उबटन लगाय, निर्मल नीर से मल मल न्हाय, कंघी चोटी कर, पाटी सँवार, माँग मोतियो से भर, अजन मंजन कर, मिहदी महावर रचाय, पान खाय, अच्छे जड़ाऊ सोने के गहने मँगाय, सीसफूल, बैवा, बैदी,