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और बानासुर यह कह रहा था कि अरे लड़के, मैं तुझे अब मारता हूँ जो कोई तेरा सहायक हो तो तू बुला। बीच ऊषा ने पिय की यह दसा सुन चित्ररेखा से कहा कि सखी, धिक्कार है मेरा जीतब को जो पति मेरा दुख मैं रहै औ मैं सुख से खाऊँ पीऊँ और सोऊँ। चित्ररेखा बोली― सखी, तू कुछ चिता मत करै, तेरे पति का कोई कुछ कर न सकेगा, निचिन्त रह। अभी श्रीकृणचंद औ बलरामजी सब जदुबंसियों को साथ ले चढ़ि आवेगे और असुरदल को संहार तुझे समेत अनरुद्ध को छुड़ाय ले जायँगे। उनकी यही रीति है कि जिस राजा के सुदर कन्या सुनते हैं, तहॉ से बल छल कर जैसे बने तैसे ले जाते है। उन्हींका यह पोता है जो कुंडलपुर से राजा भीष्मक की बेटी रुक्मिनी को, महाबली बड़े प्रतापी राजा सिसुपाल औ जरासन्ध से सग्राम कर ले गये थे तैसेही अब तुझे ले जॉयगे तू किसी बात की भावना मत करे। ऊषा बोली―सखी, यह दुख मुझसे सहा नहीं जाता।

नागपास बांधे षिय हरी। दहै गात ज्वाला विष भरी॥
हौ कैसे पौढौ सुख सेना। पिय दुख क्यौकर देखो नैना॥
प्रीतम बिपत परे क्यो जीऔ। भोजन करौ न पानी पीऔ॥
बर बध अब बानासुर कीजो। मोकौ सरन कंत की दीजो॥
होनहार होनी है होय। तासो कहा कहैगो कोय॥
लोक वेद की लांज न मानौ। पिय संग दुख सुख ही में जानौ॥

महाराज, चित्ररेखा से ऐसे कह जब ऊषा कंत के निकट जाय निडर निसंक हो बैठी तब किसीने बानासुर को जा सुनाया कि महाराज, राजकन्या घर से निकल उस पुरुष के पास गई।