पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३१०)


गिरते ही बानासुर अति कोय कर पॉच * धनुष चढ़ाय, एक एक धनुष पर दो दो बान धर लगा मेह सा बरसाने औ श्रीकृष्णचंद बीच ही लगे काटने। महाराज, उस काल इधर उधर के मारू ढोल डफ से बाजते थे, कड़खैत धमाल सी गाते थे, घावो से लोहू की धार पिचकारियाँ सी चल रही थीं, जिधर तिधर जहॉ तहॉ लाल लाल लोहू गुलाल सा दृष्ट आता था। बीच बीच भूत प्रेत पिशाच जो भाँति भाँति के भेष भयावने बनाए फिरते थे, सो भगत सी खेल रहे थे औ रक्त की नदी रंग की सी नदी बह निकली थी, लड़ाई क्या दोनो ओर से होली सी हो रही थी। इसमें लड़ते लड़ते कितनी एक बेर पीछे श्रीकृष्णाजी ने एक बान ऐसा मारा कि उसके रथका सारथ उड़ गया औ घोड़े भड़के। निदान रथवान के मरतेही बानासुर भी रनभूमि छोड़ भागा। श्रीकृष्णजी ने उसका पीछा किया।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बानासुर के भागने का समाचार पाय उसकी मॉ जिसका नाम कटरा, † सो उसी समै भयानक भेष, छुटकेस, नंग मुनंगी आ श्रीकृष्णचंद के सनसुख खड़ी हुई औ लगी पुकार करने।

देखत ही प्रभु मूँँदे नैन। पीठ दुई ताके सुन बैन॥
तौलौ बानासुर भज गयो। फिर अपनौ दल जोरत भयो॥

महाराज, जब तक बानासुर एक अक्षौहिनी दल साज वहाँ आया, तब तक कटरा श्रीकृष्णजी के आगे से न हटी। पुत्र की


* (क) (ख) दोनो में पॉच है पर पॉच सौ चाहिए क्योंकि उसे एक सहस्र हाथ थे।

† (ख) में कोटवी लिखा है। शुद्ध नाम कोटरा था।