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कृपा तुम्हारी यह मै बुझ्यौ। ज्ञान भये जगकरता सुझ्यौ।

इतनी बात के सुनतेही हरि दयाल बोले कि तू मेरी सरन आया इससे बचा, नहीं तो जीता न बचता। मैने तेरा अब का अपराध क्षमा किया फिर मेरे भक्त औ दासों को मत ब्यापियो, तुझे मेरी ही आन है। ज्वर बोला―कृपासिधु, जो इस कथा को सुनेगा उसे सीतज्वर, एकतरा, औ तिजारी कभी न व्यापैगी। पुनि श्रीकृष्णचंद बोले कि तू अब महादेव के निकट जा, यहॉ मत रह, नही तो तेरा ज्वर तुझे दुख देगा। आज्ञा पाते ही बिदा हो दंडवत कर विषमज्वर महादेवजी के पास गया औ ज्वर का बहधा सब मिट गया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज

यह संबाद सुने जो कोय। ज्वर की उर ताकौ नहिं होय॥

आगे बानासुर अति कोप कर सब हाथो में धनुष बान ले प्रभु के सनमुख आ ललकार कर बोला―

तुमते युद्ध कियो मै भारी। तौहू साद न पुजी हमारी॥

जब यह कह लगा सब हाथो से बान चलाने, तब श्रीकृष्णचंदजी ने सुदरसन चक्र को छोड़, उसके चार हाथ रख सब हाथ काट डाले, ऐसे कि जैसे कोई बात के कहते वृक्ष के गुहे छॉट डाले। हाथ के कटतेही बानासुर सिथिल हो गिरा, घावो से लहू की नदी बह निकली, तिसमें भुजाएँ मगरमच्छ सी जनाती थीं। कटे हुए हाथियो के मस्तक घड़ियाल से डूबते तिरते*जाते थे। बीच बीच रथ बेड़े नवाड़े से बहे जाते थे और जिधर तिधर रनभूमि में स्वान स्यार गिद्ध आदि पशुपक्षी लोथें खैच खैंच आपस में लड़


* ( ख ) में यह शब्द नहीं है।