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भरत की आज्ञा समान अरु जहाँ कवि की रति साक्षात देवतन बिषे राजा बिषे व्यिग्य होई। विभावादि निरपेक्ष सो भावधुनि कहियै ताते प्रधानता करिके कवि ही की उक्ति ते भाव व्यंगि होतु है, कोउ बीच अंतराहि नाहीं और कवि की उक्ति हैं कवि निबंध बकता की प्रतीति होइ। फिरि विचार करत उनके विभावादिकनु की प्रतीति होइ ताते भाव बहु प्रकारन ते पाइयतु है।

माथुर कृष्णदेव

इनका वृत्तांत कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। इन्होने श्रीमद्भागवत की ब्रज भाषा गद्य टीका लिखी है, जिसकी सं॰ १७५० वि॰ की लिखी हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई है। अवश्य ही यह रचना इस काल के पहले की होगी।
उदा॰―

दुष जु हे ते पाप कर्म को फल हे अरु सुष जु हे ते पुन्य कर्म को फल हे, पाप अरु पुन्य रूपी दोऊ भाँति के कर्मन की जब निवृत्ति होति हे तब मुक्ति होति है। सो ब्रजबघून के याही देह बिषे भई हे अब यह कहत हे। अति दुसह जो श्रीकृष्ण को बिरह ताकरि भयो जो अधिक संताप ता संताप करि दूर भए हे पाप कर्म जिनके अरु ध्यान करि मन विषे प्रगट भए जु श्रीकृष्ण हे तिन सो जु मिलापु हैं तो मिलिबे के सुष करि दूर भए हे पुन्य कर्म जिनके ऐसी ब्रज सुंदरी ताही परमात्मा को ध्यान करते।

सुरति मिश्र

ये आगरे के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके बनाए निम्नलिखित ग्रंथ हैं—अलंकारमाला, अमरचंद्रिका, कविप्रिया