पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३३१)


औ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद रत्नसिंहासन पर बैठे यादवो की सभा में हँस हँसकर सुनते थे, कि इस बीच कोई जदुबंसी बोल

तोहि कहा जम आयो लैन। भाखत तू जो ऐसे बैन॥
मारे कहा तोहि हम नीच। आयो है कपटी के बीच॥

जो तु बसीठ न होता तो बिन मारे न छोड़ते, दूत को मारना उचित नही। महाराज, जब जदुबंसी ने यह बात कही तब श्रीकृष्णजी ने उस ढूत को निकट बुलाय, समझाय बुझाय के कहा कि तू जाय अपने बासुदेव से कह कि कृष्ण ने कहा है जो मै तेरा बाना छोड़ सरन आता हूँ सावधान हो रहे। इतनी बात के सुनते ही दूत दंडवत कर विदा हुआ औ श्रीकृष्णचंदजी भी अपनी सेना ले काशीपुरी को सिधारे। दूत ने जाय वासुदेव पौड्रक से कहा कि महाराज, मैने द्वारका मे जाय आपका कहा संदेसा सब श्रीकृष्ण को सुनाया। सुनकर उन्होने कहा कि तू अपने स्वामी से जाय कह कि सावधान हो रहे, मै उसका बाना छोड़ सरन लेने आता हूँ।

महाराज, बसीठ यह बात कहता ही था कि किसीने आय कहा―महाराज, आप निश्चित क्या बैठे हो श्रीकृष्ण अपनी सेना ले चढ़ि आया। इतनी बात के सुनतेही बासुदेव पौंड्रक उसी भेष से अपना सब कदेक ले चढ़ धाया औ चला चला श्रीकृष्णचंद के सनमुख आया। तिसके साथ एक और भी काशी का राजा चढ़ दौड़ा। दोनो ओर दुल तुल कर खड़े हुए, जुझाऊ बाजने लगे, सुर बीर रावत लड़ने औ कायर खेत छोड़ छोड़ अपना जीव ले ले भागने लगे। उस काल युद्ध करता करता कालबस हो बासुदेव पौड्रक उसी भाँति श्रीकृष्णचंद के सनमुख जा ललकारा। उसे विष्णु भेष से देख सब जदुबंसियों ने श्रीकृष्णचंद से पूछा