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लगाय, फूल माल पहराय, पाटंबर के पॉवड़े बिछाय, बाजे गाजे से नगर मे लिवा लाए। पुनि षटरस भोजन करवाय, पास बैठ सबकी कुशल क्षेम पूछ पूछा कि महाराज, अपिका आना ह्यॉ कैसे हुआ? कौरवो के मुख से यह बात निकलतेही बलरामजी बोले कि हम राजा उग्रसेन के पठाए संदेसा कहन तुम्हारे पास आए है। कौरव बोले―कहो। बलदेवजी ने कहा कि राजाजी ने कहा है कि तुम्हैं हमसे विरोध करना उचित न था।

तुग हो बहुत सो बालक एक। कियौ युद्ध तज ज्ञान बिवेक॥
महा अधर्म जानकै कियौ। लोक लाज तज सुत गह लियौ॥
ऐसे गर्व तुम्हैं अब भयौ। समझ बूझ ताकौ दुख दयौ॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही कौरव महा कोप कर बोले कि बलरामजी, बस करो बस करो, अधिक बड़ाई उग्रसेन की मत करो, हमसे यह बात सुनी नही जाती। चार दिन की बात है कि उग्रसेन को कोई जानता मानता न था। जब से हमारे ह्यॉ सगाई की तभी से प्रभुता पाई। अब हमीसे अभिमान की बात कह पठाई। उसे लाज नही आती जो द्वारका में बैठा राज पाय, पिछली बात सब गॅवाय जो मन मानता है सो कहता है। वह दिन भूल गया कि मथुरा में ग्वाल गूजरो के साथ रहता खाता था। जैसा हमने सार्थ खिलाय सम्बन्ध कर राज दिलवाया, तिसका फल हाथो हाथ पाया। जो किसी पूरे पर गुन करते तो वह जन्म भर हमारा गुन मानता। किसी ने सच कहा है कि ओछे की प्रीत बालू की भीत समान है।

इतनी कथा कह, श्रीशुकदेवजी बोले ― महाराज, ऐसे अनेक अनेक प्रकार की बाते कह कह कर्न, द्रोन, भीषम, दुर्योधन, सल्य