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विप्ररूप ह्वै पग धारिये। छल बल कर बैरी मारिये॥

महाराज, इतनी बात कह श्रीकृष्णचंदजी ने ब्राह्मण को भेष किया, उनके साथ भीम अर्जुन ने भी विप्र भेष लिया। तीनो त्रिपुंड किये पुस्तक कॉस्व में लिये, अति उज्जल स्वरूप सुंदर रूप बन ठन कर ऐसे चले कि जैसे तीनो गुन सत रज तम देह धरे जाते होयँ, के तीनो काल। निदान कितने एक दिन मे चले चले ये मगध देश में पहुँचे औ दोपहर के समय राजा जरासंध के पौरि पर जो खड़े हुए। इनका भेष देख पौरियो ने अपने राजा से जा कहा कि महाराज, तीन ब्राम्हन अतिथि बड़े तेजस्वी महा पंडित अति ज्ञानी कुछ कांक्षा किये द्वार पर खड़े हैं, हमे क्या आझा होती है? महाराज, बात के सुनते ही राजा जरासंध उठ आया औ इन तीनो को प्रणाम कर अति मान सनमान से घर में ले गया। आगे वह इन्हे सिहासन पर बैठाय आप सचमुख हाथ जोड़ खड़ा हो देख देख सोच सोच बोला―

जाचक जो पर द्वारे आवे। बड़ौ भूप सोउ अतिथ कहावै॥
विप्र नहीं तुम जोधा बली। बात न कळू कपट की भली॥
जौ ठग ठगनि रूप धरि आवै। ठगि तो जाय भलौ न कहावै॥
छिपै न छत्री कांति तिहारी। दीसत सूर बीर बलधारी॥
तेजवंत तुम तीनो भाई। शिव विरंचि हरि से बरदाई॥
मैं जान्यो जिय कर निर्मान। करौ देव तुम आप बखान॥
तुम्हरी इच्छा हो सो करौ। अपनी बाचा सो नहिं दरौं॥
दानी मिथ्या कबहु न भाछै। धन तन सर्बसु कळू न राखे॥
मांगौ सोई दैहौ दान। सुत सुंदरि सर्वस्व परान॥

महाराज, इस बात के सुनते ही श्रीकृष्णचं जी ने कहा कि