पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३६६)


सेवती है कमला भई दासी। भक्तो के हेतु बार बार लेते हैं। अवतार, तनु धर करते है लोक ब्यौहार।

बन्धु कहन घर बैठे आवैं। अपनी माया मोहि भुलावैं॥
महा मोह हम प्रेम भुलाने। ईश्वर को भ्राता कर जाने॥
इनसे बड़ौ न दीसे कोई। पूजा प्रथम् इन्हींकी होई॥

महाराज, इस बात के सुनतेही सब ऋषि मुनि औ राजा बोल उठे कि,राजा, सहदेवजी ने सत्य कहा, प्रयम पूजन जोग हरिही है। तव तो राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचंदजी को सिंहासन पर बिठाय, आठो पटरानियो समेत, चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य कर पूजा। पुनि सब देवताओ ऋषियो मुनियो ब्राह्मन और राजाओं की पूजा की रंग रंग के जोड़े पहनाए, चंदन केसर की खौड़े की, फूलो के हार पहराए, सुगंध लगाय यथायोग्य राजाने सबकी मनुहार की। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा,

हरि पूजत सब कौ सुख भयौ। सिसुपाल कौ सीस भूंं नयौ॥

कितनी एक बेर तक तो वह सिर झुकाए मनही मन कुछ सोच विचार करता रहा। निदान कालबस हो अति क्रोध कर सिहासन से उतर सभा के बीच निःसंकोच निडर हो बोला कि इस सभा मे धृतराष्ट्र, दुर्योधन, भीषम, कर्न, द्रोनाचार्य आदि सच बड़े बड़े ज्ञानी मानी हैं, पर इस समै सबकी गति मति मारी गई, बड़े बड़े मुनीस बैठे रहे औ नंद गोप के सुत की पूजा भई औ कोई कुछ न बोला। जिसने ब्रज में जन्म ले ग्वाल वालों की जूठी छाक खाई, तिसीकी इस सभा में भई प्रभुताई बड़ाई।

ताहि बड़ौ सब कहत अचेत। सुरपति को बलि कागहि देत॥

जिनने गोपी औ ग्वालनो से नेह किया, इस सभा ने तिसेही