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रथ का सिर मुकुट कुण्डल समेत काट गिराया। पुनि सब असुरदल को मार भगाया। उस काल―

फूले देव पहुप बरषावै। किन्नर चारन हरि जस गावैं॥
सिद्ध साध विद्याधर सारे। जय जय चढ़े विमान पुकारे॥

पुनि सब बोले कि महाराज, आपकी लीला अपरंपार है कोई इसका भेद नहीं जानता। प्रथम हिरनकस्यप और हिरनाकुस भए, पीछे रावन औ कुम्भकरन, अब ये दंतवक्र औ सिसुपाल हो आए। तुम ने तीनो बेर इन्हें मारा औ परम मुक्ति दी, इससे तुम्हारी गति कुछ किसीसे जानी नहीं जाती। महाराज इतना कह देवता तो प्रभु को प्रनाम कर चले गए औ हरि बलरामजी से कहने लगे कि भाई, कौरव औ पांडवो से हुई लड़ाई, अब क्या करै। बलदेवजी बोले― कृपा निधान, कृपा कर आप हस्तिनापुर को पधारिये, तीरथ यात्रा कर पीछे से मैं भी आता हूँ। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, यह बचन सुन श्री कृष्णचंदजी तो वहॉ को पधारे जहॉ कुरुक्षेत्र मे कौरव औ पांडव महाभारत युद्ध करते थे औ बलरामजी तीरथ यात्रा को निकले। आगे सब तीरथ करते करते बलदेवजी नीमषार में पहुंचे तो वहॉ क्या देखते है कि एक ओर ऋषि मुनि यज्ञ रच रहे है औ एक ओर ऋषि मुनि की सभा में सिंहासन पर बैठे सूतजी कथा बॉच रहे हैं। इनको देखतेही सौनकादि सब मुनि ऋषियों ने उठकर प्रनाम किया औ सूत सिहासन पर गद्दी लगाए बैठा देखता रहा।

महाराज, सूत के न उठतेही बलरामजी ने सौनकादि सब ऋषि मुनियो से कहा कि इस मूरख को किसने बक्ता किया और व्यास आसन दिया। बक्ता चाहिये भक्तिवंत, विवेकी औ ज्ञानी,