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थी कि मैं तेरे पुत्र को बचाऊँगा औ न बचा सकूँगा तो तेरे मरे हुए सब पुत्र ला दूँँगा।

महाराज, इतनी बात के सुनते ही अर्जून धनुष बान ले वहाँ से उठ चला चला संजमनी पुरी में धर्मराज के पास गया। इसे देख धर्मराज उठ खड़ा हुआ औ हाथ जोड़ स्तुति कर बोला कि महाराज, आपका आगमन यहाँ कैसे हुआ। अर्जुन बोला कि मैं अमुक ब्राह्मन के बालक लेने आया हूँ। धर्मराज ने कहा कि यहाँ वे बालक नहीं आए। महाराज, इतना बचन धर्मराज के मुख से निकलते ही अर्जुन वहाँ से विदा हो सब ठौर फिरा, पर उसने ब्राह्मन के लड़के को कहीं न पाया। निदान अछता पछता द्वारका पुरी में आया औ चिता बनाय धनुष बान समेत जलने को उपस्थित हुआ। आगे अग्नि जलाय अर्जुन जो चाहे कि चिता पर बैठे, तों श्रीमुरारी गर्वप्रहारी ने आय हाथ पकड़ा औ हँसके कहा कि हे अर्जुन, तू मत जलै, तेरी प्रतिज्ञा मैं पूरी करूँँगा। जहाँ उसे ब्राह्मन के पुत्र होगे तहॉ से ली दूँगा। महाराज, ऐसे कह त्रिलोकीनाथ रथ पर बैठ अर्जुन को साथ ले पूरब दिशा की ओर को चले औ सात समुद्र पार हो लोकालोक पर्वत के निकट पहुँचे। वहाँ जाय रथ से उतर एक अति अंधेरी कंदरा में पैंठे, उस समैं श्रीकृष्णचंदजी ने सुदरसन चक्र को आज्ञा की, वह कोटि सूर्य का प्रकाश किये प्रभु के आगे आगे महा अंधकार को टालता चला।

तम तज केतिक आगे गए। जल में तबै जु पैठत भए॥
महा तरंग तासु में लसे। मूँदि ऑख ये तामें धसे॥
पहुड़े हुए शेषजी जहॉ। कृष्ण अरु अर्जुन पहुँचे तहॉ॥