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नब्बेवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, द्वारका पुरी में श्रीकृष्णचंद सदा बिराजें, रिद्धि सिद्धि सब जदुबंसियों के घर घर राजे, नर नारी बसन अभूषन ले नव भेष बनावें, चोआ चंदन चरच सुगंध लगावे। महाजन हाट बाट चौहटे झाड़ बुहार छिड़कावे, तहाँ देस देस के ब्यौपारी अनेक अनेक पदारथ बेचने को लावे। जिधर-तिधर पुरबासी कुतूहल करें, ठौर ठौर ब्राह्मन बेद उच्चरे घर घर में लोग कथा पुरान सुने सुनावे, साध संत आठो जाम हरिजस गावें। सारथी रथ घुड़ बहल जोत जोत राजद्वार पर लावे, रथी महारथी गजपति अश्वपति सूर बीर रावत जोधा यादव राजा को जुहार करने आवे। गुनी जन नाचें गावे बजावें रिझावे, बंदीजन चारन जस बखान कर कर हाथी घोड़े वस्त्र शस्त्र अन्न धन कंचन के रतनजटित आभूषन पावें।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज, उधर तो राजा उग्रसेन की राजधानी में इसी रीति से भॉति भाँति के कुतूहल हो रहे थे औ इधर श्रीकृष्णचंद आनंदकंद सोलह सहस्र एकसौ आठ युवतियों के साथ नित्य विहार करें। कभी युवतियाँ प्रेम में आसक्त हो प्रभु का भेष बनाव करे, कभी हरि आसक्त हो युवतियों को सिंगारे और जो परस्पर लीला क्रीड़ा करे सो अकथ है मुझसे कहीं नहीं जाती, वह देखे ही बनि आवे। इतना कह शुकदेवजी बोले कि महाराज एक दिन रात्र समैं श्रीकृष्णचंद सच