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युवतियों के साथ विहार करते थे औं प्रभु के नाना प्रकारके चरित्र देख किन्नर गंधई बीन पखावज भेर दुंदुभी बजाय गुन गाते थे और एक समा हो रहा था कि इसमें विहार करते करते जो कुछ प्रभु के मन में आया, तो सबको साथ ले सरोवर के तीर जाय नीर में पैठ जलक्रीड़ा करने लगे। आगे जलक्रीड़ा करते करते सब स्त्री श्रीकृष्णचंद के प्रेम में मगन हो तन मन की सुरत भुलाय एक चकवा चकवी को सरोवर के वार पार बैठे बोलते देख बोलीं–

हे चकई तू दुख क्यौं गोवै। पिया वियोग तें रैन न सोवै॥
अति ब्याकुल हैं पियहि पुकारै। हमलौं तू निज पियहि सम्हारै॥
हमतौ तिनकी चेरी भई। ऐसे कहि आगे कौं गई॥

पुनि समुद्र से कहने लगी कि हे समुद्र, तू जो लंबी सॉस लेता है औ रात दिन जागता है, सो क्या तुझे किसीका वियोग है, कि चौदह रत्न गए का सोग है। इतना कह फिर चंद्रमा को देख बोलीं―हे चंद्रमा, तू क्यो तनछीन मनमलीन हो रहा है, क्या तुझे राज रोग हुआ जो दिन दिन घटता बढ़ता है, कै कृष्णचंद, को देख जैसे हमारी गति मति भूलती है, तैसे तेरी भी भूली है।

इतनी कथा कह श्री शुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज इसी भॉति सब युवतियों ने पवन, मेघ, कोकिल, पर्वत, नदी, हंस से अनेक अनेक बाते कहीं सो जान लीजै। आगे सब स्त्री श्रीकृष्णचंद के साथ विहार करे औ सदा सेवा में रहें, प्रभु कें गुन गावे औ मन वांछित फल पावे। प्रभु गृहस्थधर्म से गृहस्थाश्रम चलावे। महाराज, सोलह सहस्र एक सौ आठ श्रीकृष्णचंद की रानी जो प्रथम बखानी, तिनमें एक एक रानी के दस दस पुत्र औ एक एक कन्या थी औ उनकी संतान अनगिनत हुई सो मेरी सामर्थ

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