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प्रेमाश्रम


लाला जटाशंकर की बरसी के लिए प्रभाशंकर ने दो हजार का अनुमान किया था। एक हजार ब्राह्मणों का भोज होनेवाला था। नगर भर के समस्त प्रतिष्ठित पुरुषों को निमंत्रण देने का विचार था। इसके सिवा चाँदी के बर्तन, कालीन, पलंग, वस्त्र आदि महापात्र को देने के लिए बन रहे थे। ज्ञानशंकर इसे धन का अपव्यय समझते थे। उनकी राय थी कि इस कार्य में दो सौ रुपये से अधिक खर्च न किया जाय। जब घर की दशा एक है ऐसी चिंताजनक तो इतने रुपये खर्च करना सर्वथा अनुचित है; किंतु प्रभाशंकर कहते थे, जब मैं मर जाऊँ तब तुम चाहे अपने बाप को एक-एक बूंद पानी के लिए तरसाना; पर जब तक मेरे दम में दम है, मैं उनकी आत्मा को दुखी नहीं कर सकता। सारे नगर में उनकी उदारता की धूम थी, बड़े-बड़े उनके सामने सिर झुका लेते थे, ऐसे प्रतिभाशाली पुरुष की बरसी भी यथा योग्य होनी चाहिए—यही हमारी श्रद्धा और प्रेम का अंतिम प्रमाण है।

ज्ञानशंकर के हृदय में भावी उन्नति की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ थी। वह अपने परिवार को फिर समृद्ध और सम्मान के शिखर पर ले जाना चाहते थे। घोड़े और फिटन की उन्हें बड़ी-बड़ी आकांक्षा थी। वह शान से फिटने पर बैठ कर निकला चाहते थे कि हठात् लोगो की आँखें उनकी तरफ उठ जायें और लोग कहे कि लाला जटाशंकर के बेटे हैं। वह अपने दीवानखाने को नाना प्रकार की सामग्रियों से सजाना चाहते थे। मकान को भी आवश्यकतानुसार बढ़ाना चाहते थे। यह घंटो एकाग्र बैठे हुए इन्ही विचारों में मग्न रहते थे। चैन से जीवन व्यतीत हो, यही उनका ध्येय था। वर्तमान दशा में मितव्ययिता के सिवा उन्हें इसका कोई दूसरा उपाय न सूक्षता था। कोई छोटी-मोटी नौकरी करने में वह अपमान समझते थे; वकालत से उन्हें अरुचि थी। और उच्चाधिकारी का द्वार उनके लिए बंद था। उनका घराना शहर में चाहे कितना ही सम्मानित हो, पर देश के विधाताओं की दृष्टि मे उसे वह गौरव प्राप्त न था जो सच्चाधिकार-सिद्धि का अनुष्ठान है। लाला जटाशंकर तो विरक्त ही थे और प्रभाशंकर केवल जिलाधीशों की कृपा-दृष्टि को अपने लिए काफी समझते थे। इसका फल जो कुछ हो सकता था वह उन्हें मिल चुका था। उनके बड़े बेटे दयाशंकर सब-इन्स्पेक्टर हो गये थे। ज्ञानशंकर कभी-कभी इस अकर्मण्यता के लिए भी अपने चाचा से उलझा करते थे—आपने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया। लाखों की जायदाद भोग—विलास में उड़ा दी। सदा अतिथ्य-सत्कार और मर्यादा-रक्षा पर जान देते रहे। अगर इस उत्साह का एक अंश भी अधिकारी वर्ग के सेवा-सत्कार में समर्पण करते तो आज मैं डिप्टी कलक्टर होता। खानेवाले खा-खाकर चल दिये। अब उन्हें याद भी नहीं रहा कि आपने उन्हें कभी खिलाया या नहीं। खस्ता कचौड़ियाँ और सोने के पत्र लगे हुए पान के बीड़े खिलाने से परिवार की उन्नति नही होती, इसके और ही रास्ते हैं। बेचारे प्रभाकर यह तिरस्कार सुन कर व्यथित होते और कहते, बेटा, ऐसी-ऐसी बातें करके हमे न जलाओ। तुम फिंटन और घोड़े, कुरसी और मेज, आइने और तस्वीरों पर जान देते हो। तुम चाहते हो कि हम अच्छे से अच्छा खायें, अच्छे से अच्छा