एक चक्कर लगाओ। जितने जानवर मिलें उन्हें बटोर लो और मेरे झोपड़े के सामने ले चलो। वहीं जमीन बहुत ऊँची है, पानी नहीं जा सकता। मैं भी तुम लोगों के साथ चलता हूँ। जो लोग इस काम के लिए तैयार हो, सामने निकल आये।
प्रेमशंकर के उत्साह ने लोगों को उत्साहित किया। तुरन्त पचास-साठ आदमी निकल आये सबके हाथों में लाठियाँ थी। प्रेमशंकर को लोगों ने रोकना चाहा, लेकिन वह किसी तरह माने। एक लाठी हाथ में ले ली और आगे-आगे चले। पग-पग पर बहते हुए झोपड़ो, गिरे हुए वृक्ष तथा बहती हुई चारपाइयों से टकराना पड़ता था। गाँव का नाम-निशान भी न था। गाँववालों को अपने-अपने घरों को भी पता न चलता था। हाँ, जहाँ-तहाँ भैसौ और बैलो के डकारने की आवाज सुन पड़ती थी। कही-कही पशु बहते हुए भी मिलते थे। यह रक्षक-दल सारी रात पशुवों के उद्धार का प्रयत्न करता रहा। उनका साहस अदम्य और उद्योग अविश्रान्त था। प्रेमशंकर अपनी टुकड़ी के साथ बारी-बारी से अन्य दलों की सहायता करते रहते थे। उनका धैर्य और परिश्रम देख कर निर्बल हृदय वाले भी प्रोत्साहित हो जाते थे। जब दिन निकला और प्रेमशंकर अपने झोपड़े पर पहुँचे तब दो सौ से अधिक पशुओं को आनन्द से बैठे जुगाली करते हुए देखा। लेकिन इतनी कड़ी मेहनत कभी न की थी। ऐसे थक गये थे कि खड़ा होना मुश्किल था। अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी। आठ बजते-बजते उन्हें ज्वर हो आया। लाला प्रभाशंकर ने यह वृत्तान्त सुना तो असन्तुष्ट होकर बोले, बेटा, परमार्थ करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन इस तरह प्राण दे कर नहीं। चाहे तुम्हें अपने प्राण का मूल्य इन जानवरों से कम जान पड़ता हो, लेकिन हम ऐसे-ऐसे लाखों पशुओं का तुम्हारे ऊपर बलिदान कर सकते है। श्रद्धा सुनेगी तो न जाने उसका क्या हाल होगा? यह कहते-कहते उनकी आँखे भर आयी।
तीन दिन तक प्रेमशंकर ने सिर ने उठाया और न लाला प्रभाशंकर उनके पास से उठे। उनके सिरहाने बैठे हुए कभी विनयपत्रिका के पदों का पाठ करते, कमी हुनुमान चालीसा पढ़ते। हाजीपुर में दो ब्राह्मण भी थे। वह दोनों झोपड़े में बैठे दुर्गा-पाठ किया करते। अन्य लोग तरह-तरह की जड़ी-बूटियां लाते। आस पास के देहातों मे भी जो उनकी बीमारी की खबर पाता, दौड़ा हुआ देखने आता। चौथे दिन ज्वर उतर गया, आकाश भी निर्मल हो गया और बाढ़ उतर गयी।
प्रभात का समय था। लाला प्रभाशंकर ब्राह्मणों को दक्षिणा दे कर घर चले गये थे। प्रेमशंकर अपनी चारपाई पर तकिये के सहारे बैठे हुए हाजीपुर की तरफ चितामय नेत्र से देख रहे थे। चार दिन पहले जहां एक हरा-भरा लहलहाता हुआ गाँव था, जहाँ मीलों तक खेतों मे सुखद हरियाली छायी हुई थी, जहाँ प्रात काल गाय भैसो के रेवड के रेवड चरते दिखायी देते थे, जहाँ झोपड़ो से चक्कियों की मधुर ध्वनि उठती थी और बालवृन्द मैदानों में खेलते कूदते दिखायी देते थे, वहाँ एक निर्जन मरुभूमि थी। गाँव के अधिकाश प्राणी दूसरे गाँव में भाग गये थे, और कुछ लोग प्रेमशंकर के झोपड़े के सामने सिरकियाँ डाले पड़े थे। न किसी के पास भोजन था, न वस्त्र। बड़ा