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प्रेमाश्रम


था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा, क्या साग अच्छा नहीं? गुड़ दूं?

मनोहर—नहीं, साग तो अच्छा हैं।

बिलासी—क्या भूख नहीं?

मनोहर—भूख क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।

बिलासी—खाते तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नही हुई है?

मनोहर—नहीं, कहा-सुनी किस से होती?

इतने में एक युवक कोठरी में आ कर खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ट-पुष्ट था, छाती चौड़ी और भरी हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यंत्र था और दाहिने बाँह में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।

बिलासी—कहाँ घूम रहे हो? आओ, खा लो, थाली परसूँ।

बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए कहा, काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे।

मनोहर—कुछ नहीं, तुमसे कौन कहता था?

बलराज—सभी लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे, तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गये।

मनोहर—अरे तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा, तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जायगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन-सी बात थी?

बलराज—झगड़े की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगें? किसी का दिया खाते है कि किसी के घर माँगने जाते हैं? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहे? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन समझ लिया हैं?

मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती थी, पर इसके साथ ही यह चिंता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला, चुपके से बैठ कर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहीं जा कर एक की चार जड़ आयेगा। यहाँ कोई अपना मित्र नहीं हैं।

बलराज—सुन लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमंड हो आ कर देख ले। एक-एक का सिर तोड़ के रख दें। यहीं न होगा, कैद हो कर चला जाऊँगा। इनसे कौन डरता हैं? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आये हैं।

बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के भाव से देख कर कहा, तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक न एक बखेड़ा मचाये ही रहते हो। जब सारा गाँव घी दे रहा हैं तब हम क्या गाँव से बाहर हैं। जैसे बन पड़ेगा देंगे। इसमें कोई अपनी