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प्रेमाश्रम

ज्ञान—कह चुकी या और कहना है।

विद्या—कहने-सुनने की बात नहीं हैं, मुझे तुम्हारा वहाँ जाना सर्वथा अनुचित जान पड़ता है।

ज्ञान—अच्छा तो अब मेरी बात सुनो। मुझे वर्तमान और भविष्य को अवस्था का विचार करके यह उचित जान पड़ता है कि इन अवसर को हाथ से न जाने दें। जब मैं जी तोड़ कर काम करूंगा, दो की जगह एक खर्च करूंगा, एक की जगह दो जमा करके दिखाऊँगा; तो गायत्र बावली नहीं हैं कि अनायास मुझपर सन्देह करने लगे। और फिर मैं केवल नौकरी के इरादे नहीं जाता, मेरे विचार कुछ और ही हैं।

विद्या—ने सशंक दृष्टि है ज्ञानशंकर को देख कर पूछा, और क्या विचार है?

ज्ञान—में इस समृद्धिपूर्ण रियासत को दूसरे के हाथ मैं नहीं देखना चाहता। गायत्री के बाद जब इस पर दूसरों का ही अधिकार होगा तो मेरी क्यों न हो?

विद्या—ने कुतूहल से देख कर कहा, तुम्हारा क्या हक हैं?

ज्ञान—मैं अपना हक जमाया चाहता हूँ। अब चलता हूँ जरा ज्वालासिंह से निबटता आऊँ।

विद्या—उनसे क्या निबटोगे? उन्होंने कोई रिश्वत ली है?

ज्ञान—तो फिर इतना मित्रभाव क्यों दिखाते हैं।

विद्या—यह उनको सज्जनता है। यह आवश्यक नहीं कि वह अपके लिए दूसरों पर अन्याय करे।

ज्ञान–यही बात मैं उनके मुँह है सुनना चाहता हूँ। इसका मुंहतोड़ जवाब मेरे पास है।

विद्या—अच्छा तो जाओ, जो जी में आये करो। फिर क्यों सलाह लेते हो?

ज्ञान—तुमसे सलाह नहीं लेता, इतनी ही बुद्धि होती तो फिर रोना काहे का था? स्त्रियों बड़े-बड़े काम कर दिखाती हैं। तुमसे इतना भी न हो सका कि शीलमणि ने इस मुकदमे के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करती, तुम्हारी तो जरा-जरा सी बाद में मान हानि होने लगती है।

विद्या–हाँ, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ही ऐसा नहीं है।

ज्ञान—क्यों, इसमें क्या हर्ज था, अगर तुम एक बार हँसी-हँसी में कह देता कि तुम्हारे बाबूजी झारी हजारों रुपये माल को क्षति कराये देते हैं, जरा उनको समझा क्यों नहीं देती है?

विद्या—मुझे यह बातें बनानी नहीं आती, क्या करूँ? मैं इस विषय में शीलमणि से कुछ कह नहीं सकती।

ज्ञान—चाहे दावा खारिज हो जाय?

विद्या—चाहे जो कुछ हो।

ज्ञानशंकर बाहर आये तो सामने एक नयी समस्या आ खड़ी हुई। विद्या को कैसे राजी करूँ? मानता हूँ कि सम्बन्धियों के यहाँ नौकरी से कुछ हेठी अवश्य होती है।